Tuesday, September 22, 2009

शिव के पौराणिक शिवालय




यूँ तो प्रत्येक शहर और गाँवों में शिव के अनेकों शिवालय है, जिनमें से अधिकतर का अपना अलग पुरातात्विक और पौराणिक महत्व भी है। पुराणों में बारह ज्योर्तिलिंग के अलावा भी शिव के पवित्र स्थानों का उल्लेख मिलता है। प्रत्येक स्थान से जुड़ी अनेक कथाएँ हैं तथा इसका खगोलीय महत्व भी है। हम जानते हैं कि प्रमुख रूप से भगवान शिव के कौन-कौन से स्थान है।

कैलाश पर्वत : कैलाश पर्वत भगवान शिव का मुख्‍य निवास स्थान है। कैलाश पर्वत चीन के तिब्बती इलाके में है। पर्वत के नजदीक ही विश्व प्रसिद्ध मानसरोवर झील है जहाँ माँ पार्वती स्नान करती थी। पुराणों अनुसार उक्त स्थान के नीचे ही पाताल लोक है जहाँ भगवान विष्णु विराजमान है। कैलाश पर्वत के लाखों योजन ऊपर ब्रह्मा का स्थान माना गया है।

ज्योतिर्लिंग : ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में अनेकों मान्यताएँ प्रचलित है। विक्रम संवत के कुछ सहस्राब्‍दी पूर्व उल्कापात का अधिक प्रकोप हुआ। आदि मानव को यह रुद्र का आविर्भाव दिखा। शिव पुराण के अनुसार उस समय आकाश से ज्‍योति पिंड पृथ्‍वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। यही उल्‍का पिंड बारह ज्‍योतिर्लिंग कहलाए।

   


12 ज्योतिर्लिंग :- (1) सोमनाथ, (2) मल्लिकार्जुन, (3) महाकालेश्वर, (4) ॐकारेश्वर, (5) वैद्यनाथ, (6)

भीमशंकर, (7) रामेश्वर, (8) नागेश्वर, (9) विश्वनाथजी, (10) त्र्यम्बकेश्वर, (11) केदारनाथ, (12) घृष्णेश्वर।

अमरनाथ : वैसे जो जम्मू और कश्मीर में सैकड़ों प्राचीन शिव मंदिर है और हिन्दू पंडितों द्वारा पलायन करने के बाद सैंकड़ों मंदिर तोड़ दिए गया है किंतु विश्व प्रसिद्ध अमरनाथ तीर्थ स्‍थल का ही ज्यादा महत्व है। यह वह स्थान है जहाँ भगवान शिव ने माँ पार्वती को अमरत्व का रहस्य बताया था। इस स्थान को अमरनाथ की गुफा कहा जाता है। स्थानीय लोग इसे 'बर्फानी बाबा' की गुफा के नाम से पुकारते हैं। गुफा श्रीनगर से उत्तर-पूर्व में 135 सहस्त्रमीटर दूर समुद्रतल से 13,600 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। इस गुफा की लंबाई 19 मीटर, चौड़ाई 16 मीटर और ऊँचाई 11 मीटर है।

अरुणाचलेश्वर मंदिर : यह बहुत ही प्राचीन मंदिर है जो एक विशालकाय पर्वत पर स्थापित है। तिरुअन्नामलाई नामक कस्बे में स्थित यह मंदिर चेन्नई से 187 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर से जुड़ी कथा का शिव पुराण में उल्लेख मिलता है। भगवान शिव के पंचभूत क्षेत्रों में से एक अरुणाचलेश्वर मंदिर को अग्नि क्षेत्र माना जाता है जबकि काँची और तिरुवरुवर को पृथ्वी, चिदंबरम को आकाश, कलष्टी को वायु और तिरुवनिका को जल क्षेत्र माना जाता है।

श्रीकालहस्ती : आंध्रप्रदेश के तिरुपति शहर के पास पेन्नारजी की शाखा स्वर्णामुखी नदी के तट पर बसा कालहस्ती नामक स्थान पर भगवान शंकर का बहुत ही प्राचीन मंदिर स्थित है, जिसका उल्लेख पुराणों में मिलता है। दक्षिण भारत में स्थित भगवान शिव के तीर्थस्थानों में इस स्थान का विशेष महत्व है। नदी तट से पर्वत के तल तक विस्तारित इस स्थान को दक्षिण कैलाश व दक्षिण काशी नाम से भी जाना जाता है।

सिद्धनाथ महादेव : पाँडवों ने मालवा क्षेत्र में पाँच शिव मंदिर बनाएँ थे उनमें से एक है सिद्धनाथ महादेव का मंदिर। यह मंदिर पुण्य सलिला नर्मदा के किनारे बसे नगर नेमावर में स्थित है। ऐसी किंवदंती भी है कि सिद्धनाथ मंदिर के शिवलिंग की स्थापना चार सिद्ध ऋषि सनक, सनन्दन, सनातन और सनतकुमार ने सतयुग में की थी। इसी कारण इस मंदिर का नाम सिद्धनाथ है। हिंदू और जैन पुराणों में इस स्थान का कई बार उल्लेख हुआ है। इसे सब पापों का नाश कर सिद्धिदाता ‍तीर्थस्थल माना गया है।

कर्णेश्वर महादेव : मालवांचल में कौरवों-पांडवों ने अनेक मंदिर बनाएँ थे जिनमें से एक है सेंधल नदी के किनारे बसा यह कर्णेश्वर महादेव का मंदिर। करनावद (कर्णावत) नगर के राजा कर्ण यहाँ बैठकर ग्रामवासियों को दान दिया करते थे इस कारण इस मंदिर का नाम कर्णेश्वर मंदिर पड़ा। मध्यप्रदेश के इंदौर से 30 किलोमिटर पर स्थित देवास जिले में स्थित है करनावद ग्राम।

नटराज मंदिर चिदंबरम : तमिलनाडु में चिदंबरम का नटराज मंदिर चेन्नई-तंजावुर मार्ग पर चेन्नई से 245 किमी दूर स्थित है। पुराणों के मुताबिक भगवान यहाँ प्रणव मंत्र 'ॐ' के आकार में विराजमान हैं। भगवान शिव के पाँच क्षेत्रों में से एक है चिदंबरम। इसे शिव का आकाश क्षेत्र कहा जाता है। अन्य चार क्षेत्रों में कालाहस्ती (आंध्रप्रदेश) अर्थात वायु, कांचीपुरम यानी पृथ्वी, तिरुवनिका- जल और अरुणाचलेश्वर (तिरुवनामलाई) अर्थात अग्नि शामिल हैं। शिव के नटराज स्वरूप के नृत्य का स्वामी होने के कारण भरतनाट्यम के कलाकारों के लिए इस स्थान का खास महत्व है।

Monday, September 21, 2009

बेल पत्र का चढावा

मान्यता है कि शिव को बिल्व-पत्र चढ़ाने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। दरअसल बिल्व-पत्र एक पेड़ की पत्तियां हैं, जो आमतौर पर तीन-तीन के समूह में मिलती हैं। कुछ पत्तियां पांच के समूह की भी होती हैं लेकिन ये बड़ी दुर्लभ होती हैं। बिल्व को बेल भी कहते हैं। वास्तव में ये बिल्व की पत्तियां एक औषधि है। इसके औषधीय प्रयोग से हमारे कई रोग दूर हो जाते हैं। बिल्व के पेड़ का भी विशिष्ट धार्मिक महत्व है। कहते हैं कि इस पेड़ को सींचने से सब तीर्थो का फल और शिवलोक की प्राप्ति होती है।
महादेव का रूप है वृक्ष
बिल्व वृक्ष का धार्मिक महत्व है। कारण यह महादेव का ही रूप है। धार्मिक परंपरा में ऐसी मान्यता है कि बिल्व के वृक्ष के मूल अर्थात जड़ में लिंगरूपी महादेव का वास रहता है। इसीलिए बिल्व के मूल में महादेव का पूजन किया जाता है। इसकी मूल यानी जड़ को सींचा जाता है। इसका धार्मिक महत्व है। धर्मग्रंथों में भी इसका उल्लेख है-
बिल्वमूले महादेवं लिंगरूपिणमव्ययम्। य: पूजयति पुण्यात्मा स शिवं प्रापAुयाद्॥ बिल्वमूले जलैर्यस्तु मूर्धानमभिषिञ्चति। स सर्वतीर्थस्नात: स्यात्स एव भुवि पावन:॥ शिवपुराण १३/१४
अर्थ- बिल्व के मूल में लिंगरूपी अविनाशी महादेव का पूजन जो पुण्यात्मा व्यक्ति करता है, उसका कल्याण होता है। जो व्यक्ति शिवजी के ऊपर बिल्वमूल में जल चढ़ाता है उसे सब तीर्थो में स्नान का फल मिल जाता है।
बिल्व-पत्र तोड़ने का मंत्र
बिल्व-पत्र को सोच-विचार कर ही तोड़ना चाहिए। पत्ते तोड़ने से पहले यह मंत्र बोलना चाहिए-
अमृतोद्भव श्रीवृक्ष महादेवप्रिय: सदा। गृöामि तव पत्राणि शिवपूजार्थमादरात्॥ -आचारेन्दु अर्थ- अमृत से उत्पन्न सौंदर्य व ऐश्वर्यपूर्ण वृक्ष महादेव को हमेशा प्रिय है। भगवान शिव की पूजा के लिए हे वृक्ष में तुम्हारे पत्र तोड़ता हूं।
पत्तियां कब न तोड़ें
विशेष दिन या पर्वो के अवसर पर बिल्व के पेड़ से पत्तियां तोड़ना मना है। शास्त्रों के अनुसार इसकी पत्तियां इन दिनों में नहीं तोड़ना चाहिए-
>> सोमवार के दिन >> चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या की तिथियों को। >> संक्रांति के पर्व पर।
अमारिक्तासु संक्रान्त्यामष्टम्यामिन्दुवासरे । बिल्वपत्रं न च छिन्द्याच्छिन्द्याच्चेन्नरकं व्रजेत ॥ लिंगपुराण
अर्थ
अमावस्या, संक्रान्ति के समय, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी तिथियों तथा सोमवार के दिन बिल्व-पत्र तोड़ना वर्जित है।
चढ़ाया गया पत्र भी चढ़ा सकते हैं
शास्त्रों में विशेष दिनों पर बिल्व-पत्र चढ़ाने से मना किया गया है तो यह भी कहा गया है कि इन दिनों में चढ़ाया गया बिल्व-पत्र धोकर पुन: चढ़ा सकते हैं।
अर्पितान्यपि बिल्वानि प्रक्षाल्यापि पुन: पुन:। शंकरायार्पणीयानि न नवानि यदि चित्॥ स्कन्दपुराण, आचारेन्दु,
अर्थ- अगर भगवान शिव को अर्पित करने के लिए नूतन बिल्व-पत्र न हो तो चढ़ाए गए पत्तों को बार-बार धोकर चढ़ा सकते हैं।
विभिन्न रोगों की कारगर दवा
बिल्व का वृक्ष विभिन्न रोगों की कारगर दवा है। इसके पत्ते ही नहीं बल्कि विभिन्न अंग दवा के रूप में उपयोग किए जाते हैं। पीलिया, सूजन, कब्ज, अतिसार, शारीरिक दाह, हृदय की घबराहट, निद्रा, मानसिक तनाव, श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर, आंखों के दर्द, रक्तविकार आदि रोगों में बिल्व के विभिन्न अंग उपयोगी होते हैं। इसके पत्तो को पानी से पकाकर उस पानी से किसी भी तरह के जख्म को धोकर उस पर ताजे पत्ते पीसकर बांध देने से वह शीघ्र ठीक हो जाता है।
पूजन में महत्व
वस्तुत: बिल्व पत्र हमारे लिए उपयोगी वनस्पति है। यह हमारे कष्टों को दूर करती है। भगवान शिव को चढ़ाने का भाव यह होता है कि जीवन में हम भी लोगों के संकट में काम आएं। दूसरों के दु:ख के समय काम आने वाला व्यक्ति या वस्तु भगवान शिव को प्रिय है। सारी वनस्पतियां भगवान की कृपा से ही हमें मिली हैं अत: हमारे अंदर पेड़ों के प्रति सद्भावना होती है। यह भावना पेड़-पौधों की रक्षा व सुरक्षा के लिए स्वत: प्रेरित करती है।
पूजा में चढ़ाने का मंत्र
भगवान शिव की पूजा में बिल्व पत्र यह मंत्र बोलकर चढ़ाया जाता है। यह मंत्र बहुत पौराणिक है।
त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम्। त्रिजन्मपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम्॥
अर्थ- तीन गुण, तीन नेत्र, त्रिशूल धारण करने वाले और तीन जन्मों के पाप को संहार करने वाले हे शिवजी आपको त्रिदल बिल्व पत्र अर्पित करता हूं।

महाशिवरात्रि का त्योहार विशेष महत्व


भगवान शिव में आस्था रखने वाले श्रद्धालुओं के लिए महाशिवरात्रि का त्योहार विशेष महत्व रखता है। इस अवसर पर देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थित द्वादश ज्योतिर्लिगों के दर्शन और पूजन का विशेष महत्व है। श्रीशिव महापुराण, रामायण, महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में भी इन द्वादश ज्योतिर्लिगों की महिमा का उल्लेख है। देश के प्रमुख हिस्सों में स्थित द्वादश ज्योतिर्लिग इस प्रकार हैं:

उत्तराखंड के केदारनाथ

उत्तराखंड में स्थित केदारनाथ ज्योतिर्लिग की स्थापना का इतिहास संक्षेप में यह है कि हिमालय के केदार-श्रृंग पर विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और वहां ज्योतिर्लिग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया।

काशी के विश्वेश्वर

श्रीविश्वेश्वर ज्योतिर्लिग वाराणसी में विराजमान है। इस मंदिर की स्थापना अथवा पुन: स्थापना आदि शंकराचार्य ने स्वयं अपने कर कमलों से की थी। इस प्राचीन मंदिर को मुगल आक्रमणकारियों द्वारा काफी क्षति पहुंचाई गई थी। बाद में शिवभक्त महारानी अहिल्याबाई ने इस मंदिर के पास भगवान विश्वनाथ का एक सुंदर नया मंदिर बनवा दिया और पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने इस पर स्वर्ण कलश चढवा दिया।

नासिक में ˜यंबकेश्वर

गोदावरी नदी के उद्गम स्थान नासिक के समीप अवस्थित ˜यंबकेश्वर भगवान की भी बडी महिमा है। गौतम ऋषि तथा गोदावरी के प्रार्थनानुसार भगवान शिव ने इस स्थान में वास करने की कृपा की और ˜यंबकेश्वर नाम से विख्यात हुए।

चंद्र के इष्ट सोमनाथ

सोमनाथ काठियावाड के श्रीप्रभास क्षेत्र में विराजमान हैं। यहां के प्रमुख ज्योतिर्लिग सोमनाथ की कथा संक्षेप में यह है कि दक्ष प्रजापति ने अपनी सभी 27 कन्याओं का विवाह चंद्रदेव के साथ किया था। परंतु चंद्रमा का अनुराग उनमें से एकमात्र रोहिणी के प्रति था और अन्य कन्याओं की वह उपेक्षा करते थे। इससे क्षुब्ध होकर दक्ष ने चंद्रमा को शाप दिया-तुम्हारा क्षय हो जाए। फलत: चंद्रमा क्षयग्रस्त हो गए। फिर उन्होंने छ: माह तक निरंतर घोर तप किया। फलत: भगवान शिव प्रसन्न हुए और उन्होंने मृतप्राय चंद्रमा को अमरत्व प्रदान किया। इस प्रकार चंद्रदेव शापमुक्त हो गए और शिव जी भक्तों के उद्धार के लिए ज्योतिर्लिग रूप में सदा के लिए इस क्षेत्र में वास करने लगे।

शिव का एक और नाम घुश्मेश्वर

यह ज्योतिर्लिग महाराष्ट्र के मनमाड से 66 मील दूर दौलताबाद स्टेशन के पास है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में एक कथा प्रचलित है- दक्षिण में देवगिरि पर्वत के निकट सुधर्मा और सुदेहा नामकनि:संतान ब्राह्मण दंपती रहते थे। संतान प्राप्ति केलिए सुदेहा ने अपनी छोटी बहन घुश्मा से अपने पति का विवाह करवा दिया। घुश्मा प्रतिदिन नियमपूर्वक 101 पार्थिव शिवलिंग बनाकर उनका विधिवत पूजन करती थी। भगवान शंकर के आशीर्वाद से उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। परंतु समय बीतने के साथ-साथ सुदेहा के अंदर ईष्र्या का भाव उत्पन्न हुआ। एक रोज रात्रि के समय जब वह बालक नदी के किनारे सैर कर रहा था तो सुधर्मा ने उसकी हत्या कर डाली और उसके शव को ले जाकर उसी सरोवर में छोड दिया, जिसमें घुश्मा पार्थिव शिवलिंग विसर्जित करती थी। प्रतिदिन की तरह घुश्मा शिवजी की पूजा करके शिवलिंग को विसर्जित करने सरोवर चली गई। वहां उसने देखा कि सरोवर से पुत्र जीवित बाहर निकल आया। धर्मपरायण घुश्मा की प्रार्थना से प्रसन्न होकर शिवजी वहीं ज्योतिर्लिग के रूप में वास करने लगे और घुश्मेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए।

दक्षिण के मल्लिकार्जुन

तमिलनाडु के कृष्णा जिले में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल पर्वत है। इसे दक्षिण कैलास कहते हैं। इस स्थान के संबंध में पौराणिक कथा है कि जब विश्व परिक्रमा की प्रतियोगिता में श्रीगणेश को शिव जी ने विजयी घोषित किया तो इस बात से रुष्ट होकर कार्तिकेय क्रौंच पर्वत पर चले गए। माता-पिता ने नारद को भेजकर उन्हें वापस बुलाया, पर वे न आए। अंत में, माता का हृदय व्याकुल हो उठा और पार्वती शिवजी को लेकर क्रौंच पर्वत पर पहुंचीं, किंतु उनके आने की खबर पाते ही वहां से भी कार्तिकेय भाग खडे हुए और काफी दूर जाकर रुके। कहते हैं, क्रौंच पर्वत पर पहुंच कर शंकर जी ज्योतिर्लिग के रूप में प्रकट हुए और तब से वह स्थान श्रीमल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिग के नाम से प्रख्यात है।

उज्जैन में महाकालेश्वर

श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिग मालवा प्रदेशांतर्गत शिप्रा नदी के तट पर उज्जैन नगरी में है। इसकी स्थापना के संबंध में कथा प्रचलित है कि एक दिन श्रीकर नामक एक बालक रास्ते से गुजर रहा था। शिप्रा नदी के तट पर नगर के राजा को शिवपूजन करते देखा। घर लौटते समय उसने रास्ते से एक पत्थर का टुकडा उठा लिया और घर आकर उसी को शिव रूप में स्थापित कर श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा करने लगा। माता भोजन के लिए बुलाती रही, पर बालक की समाधि नहीं टूटी। अंत में, झल्लाकर उसने पत्थर का टुकडा वहां से उठाकर दूर फेंक दिया। तब सरल चित्त भक्त बालक ने विलाप करते हुए शंभु को पुकारना शुरू किया और रोते हुए वह अचेत हो गया। अंततोगत्वा भोलानाथ प्रसन्न हुए और ज्यों ही होश में आकर उसने आंखें खोलीं तो उसने देखा कि सामने एक अति विशाल स्वर्ण कपाटयुक्त रत्नजटित मंदिर खडा है और उसके अंदर एक अति प्रकाशयुक्त ज्योतिर्लिग देदीप्यमान हो रहा है।

पर्वतों से घिरे ओंकारेश्वर

यह स्थान मध्य प्रदेश स्थित मालवा में नर्मदा नदी के तट पर है। यहीं मांधाता पर्वत पर ओंकारेश्वर तीर्थ है। प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा मांधाता बहुत बडे तपस्वी थे। उनके पुत्र अंबरीश और मुचकुंद भी प्रसिद्ध भक्त थे। राजा मांधाता ने इस स्थान पर घोर तपस्या करके शंकरजी को प्रसन्न किया था। यहां शिवलिंग के चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है। कुछ लोग इस पर्वत को ओंकार रूप मानते हैं और परिक्रमा करते हैं। शिवपुराण में श्रीओंकारेश्वर के दर्शन तथा नर्मदा स्नान का बडा माहात्म्य वर्णित है।

झारखंड में वैद्यनाथ धाम

झारखंड स्थित वैद्यनाथ धाम भी ज्योतिर्लिग है। इसकी स्थापना की कथा यह है कि एक बार शिवजी को प्रसन्न करने के लिए रावण अपने सिर काटकर उन्हें अर्पित कर रहा था।नौ सिर चढाने के बाद वह दसवां सिर भी काटने को ही था कि शिव जी प्रकट हो गए। उन्होंने उसके दसों सिर वापस ज्यों-के-त्यों कर दिए और फिर वरदान मांगने को कहा तो रावण ने लंका जाकर उस शिवलिंग को वहां स्थापित करने की आज्ञा मांगी। शिवजी ने अनुमति तो दे दी, पर इस चेतावनी के साथ कि यदि मार्ग में वह इसे पृथ्वी पर रख देगा तो वह वहीं अचल हो जाएगा।

रावण शिवलिंग लेकर चला, पर मार्ग में उसे लघुशंका निवृत्ति की आवश्यकता हुई और वह उस शिवलिंग को एक राहगीर को थमाकर चला गया। जब रावण के लौटने में देर हुई तो उसने शिवलिंग को भूमि पर रख दिया। लौटने पर रावण पूरी शक्ति लगाकर भी उसे उठा न सका और वहां शिवजी ज्योतिर्लिग के रूप में स्थापित हो गए।

गुजरात मेंनागेश्वर

नागेश्वर का मंदिर गुजरात स्थित द्वारिकापुरी के पास स्थित है। इस संबंध में प्रचलित कथा है कि वहां सुप्रिय नामक वैश्य था, जो शिवजी का अनन्य भक्त था। एक बार वह नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था, अचानक दारुक नाम के एक राक्षस ने उस नौका पर आक्रमण किया और उसमें बैठे सभी यात्रियों को अपने नगर में ले जाकर कारागार में बंद कर दिया। उसने अपने अनुचरों को राजा सुप्रिय की हत्या करने का आदेश दिया, परंतु वह इससे भी विचलित नहीं हुआ और शिवजी का ही नाम जपता रहता। फलत: कारागार में ही शिव जी ने उसे ज्योतिर्लिग रूप में दर्शन दिए।

महाराष्ट्र में भीमशंकर

भीमशंकर ज्योतिर्लिग मुंबई से पूर्व की ओर भीमा नदी के तट पर स्थित है। इस शिवलिंग की उत्पत्ति की कथा संक्षेप में इस प्रकार है। कामरूप देश में कामरूपेश्वर नामक एक महाप्रतापी शिवभक्त राजा थे। वहां भीम नामक एक महाराक्षस रहता था, जो भगवान शिव के ध्यान में मग्न राजा के ऊपर तलवार से वार किया। पर तलवार पार्थिव शिवलिंग पर पडी और उसी क्षण शिव जी ने प्रकट होकर राक्षस का प्राणांत कर दिया और ज्योतिर्लिग के रूप में वहीं निवास करने लगे।

जहां राम ने पूजा शिव को

लंका पर चढाई के लिए जाते हुए भगवान रामचंद्र जब रामेश्वरम पहुंचे तो उन्होंने समुद्र तट पर बालुका से शिवलिंग बनाकर पूजन किया था। उसी के बाद से भगवान शिव वहां ज्योतिर्लिग केरूप में प्रकट हुए और स्थायी रूप से वहीं निवास करने लगे।

Sunday, June 14, 2009

ज्योतिर्लिंगों से जुड़ा है सृष्टि का सारा रहस्य


सोमनाथ का ज्योतिर्लिंग इस धरती का पहला ज्योतिर्लिंग है।

ये पूरा जगत शिवमय है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि क्यों होती है शिवलिंग की पूजा। क्या आप सही मायने में शिवलिंग का रहस्य जानते हैं। शिव का असली स्वरूप क्या है। क्यों शिव ही इस जगत के आधार हैं।
क्या हुआ था जब पहली बार विधाता ने इस सृष्टि की रचना शुरू की थी। दरअसल शिव के ज्योतिर्लिंगों से जुड़ा है सृष्टि का सारा रहस्य। हर ज्योतिर्लिंग से जुड़ी है मनोरथ और सिद्धि के तमाम सीढ़ियां।
लेकिन पहले जानते हैं शिव कौन हैं। कैसे धारण करते हैं वो इस जगत को। कैसे देवी भगवती शक्ति बनकर हमेशा उनके साथ रहती हैं।
एक राजा थे उनकी सत्ताईस कन्याएं थीं। उनकी शादी होती है। लेकिन एक कन्या की वजह से सारी कहानी बदल जाती है। उस कन्या का प्यार कैसे चंद्रमा के लिए शाप का विषय बनता है। और फिर कैसे पैदा होता है शिव का पहला ज्योतिर्लिंग।
देश में शिव के जो बारह ज्योतिर्लिंग है उनके बारे में मान्यता है कि अगर सुबह उठकर सिर्फ एक बार भी बारहों ज्योतिर्लिंगों का नाम ले लिया जाए तो सारा काम हो जाता है।
सोमनाथ का ज्योतिर्लिंग इस धरती का पहला ज्योतिर्लिंग है। इस ज्योतिर्लिंग की महिमा बड़ी विचित्र है। शिव पुराण की कथा के हिसाब से प्राचीन काल में राजा दक्ष ने अश्विनी समेत अपनी सत्ताईस कन्याओं की शादी चंद्रमा से की थी।
सत्ताईस कन्याओं का पति बन के चंद्रमा बेहद खुश हुए। कन्याएं भी चंद्रमा को वर के रूप में पाकर अति प्रसन्न थीं। लेकिन ये प्रसन्नता ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रह सकी। क्योंकि कुछ दिनों के बाद चंद्रमा उनमें से एक रोहिणी पर ज्यादा मोहित हो गए।
ये बात जब राजा दक्ष को पता चली तो वो चंद्रमा को समझाने गए। चंद्रमा ने उनकी बातें सुनीं, लेकिन कुछ दिनों के बाद फिर रोहिणी पर उनकी आसक्ति और तेज हो गई।
जब राजा दक्ष को ये बात फिर पता चली तो वो गुस्से में चंद्रमा के पास गए। उनसे कहा कि मैं तुमको पहले भी समझा चुका हूं। लेकिन लगता है तुम पर मेरी बात का असर नहीं होने वाला। इसलिए मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम क्षय रोग के मरीज हो जाओ।
राजा दक्ष के इस श्राप के तुरंत बाद चंद्रमा क्षय रोग से ग्रस्त होकर धूमिल हो गए। उनकी रौशनी जाती रही। ये देखकर ऋषि मुनि बहुत परेशान हुए। इसके बाद सारे ऋषि मुनि और देवता इंद्र के साथ भगवान ब्रह्मा की शरण में गए।
फिर ब्रह्मा जी ने उन्हें एक उपाय बताया। उपाय के हिसाब से चंद्रमा को सोमनाथ के इसी जगह पर आना था। भगवान शिव का तप करना था और उसके बाद ब्रह्मा जी के हिसाब से भगवान शिव के प्रकट होने के बाद वो दक्ष के शाप से मुक्त हो सकते थे।
इस जगह पर चंद्रमा आए। भगवान वृषभध्वज का महामृत्युंजय मंत्र से पूजन किया।
फिर छह महीने तक शिव की कठोर तपस्या करते रहे। चंद्रमा की कठोर तपस्या को देखकर भगवान शिव खुश हुए। उनके सामने आए और वर मांगने को कहा।
चंद्रमा ने वर मांगा कि हे भगवन अगर आप खुश हैं तो मुझे इस क्षय रोग से मुक्ति दीजिए और मेरे सारे अपराधों को क्षमा कर दीजिए।
भगवान शिव ने कहा कि तुम्हें जिसने शाप दिया है वो भी कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। लेकिन मैं तुम्हारे लिए कुछ करूंगा जरूर। इसके बाद भगवान शिव ने चंद्रमा के साथ जो किया उसे देखकर चंद्रमा ज्यादा खुश हो सके और ही उदास रह सके। लेकिन शिव ने ऐसा किया क्या।
चंद्रमा की तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न थे। उन्हें वर देना चाहते थे लेकिन संकट देखिए। जिन्होंने चंद्रमा को श्राप दिया है वो भी कोई साधारण हस्ती नहीं थे। असमंजस था ऐसा असमंजस जिसमें भगवान शिव भी पड़ गए थे।
खैर, शिव एक रास्ता निकालते हैं। चंद्रमा से कहते हैं कि मैं तुम्हारे लिए ये कर सकता हूं एक माह में जो दो पक्ष होते हैं, उसमें से एक पक्ष में तुम निखरते जाओगे। लेकिन दूसरे पक्ष में तुम क्षीण भी होओगे। ये पौराणिक राज है चंद्रमा के शुक्ल और कृष्ण पक्ष का जिसमें एक पक्ष में वो बढ़ते हैं और दूसरे में वो घटते जाते हैं।
भगवान शिव के इस वर से भी चंद्रमा काफी खुश हो गए। उन्होंने भगवान शिव का आभार प्रकट किया उनकी स्तुति की।
यहां पर एक बड़ा अच्छा रहस्य है। अगर आप साकार और निराकर शिव का रहस्य जानते हैं तो आप इसे समझ जाएंगे, क्योंकि चंद्रमा की स्तुति के बाद इसी जगह पर भगवान शिव निराकार से साकार हो गए थे। और साकार होते ही देवताओं ने उन्हें यहां सोमेश्वर भगवान के रूप में मान लिया। यहां से भगवान शिव तीनों लोकों में सोमनाथ के नाम से विख्यात हुए।
जब शिव सोमनाथ के रूप में यहां स्थापित हो गए तो देवताओं ने उनकी तो पूजा की ही, चंद्रमा को भी नमस्कार किया। क्योंकि चंद्रमा की वजह से ही शिव का ये स्वरूप इस जगह पर मौजूद है।
समय गुजरा। इस जगह की पवित्रता बढ़ती गई। शिव पुराण में कथा है कि जब शिव सोमनाथ के रूप में यहां निवास करने लगे तो देवताओं ने यहां एक कुंड की स्थापना की। उस कुंड का नाम रखा गया सोमनाथ कुंड।
कहते हैं कि कुंड में भगवान शिव और ब्रह्मा का साक्षात निवास है। इसलिए जो भी उस कुंड में स्नान करता है, उसके सारे पाप धुल जाते हैं। उसे हर तरह के रोगों से निजात मिल जाता है।
शिव पुराण में लिखा है कि असाध्य से असाध्य रोग भी कुंड में स्नान करने के बाद खत्म हो जाता है। लेकिन एक विधि है जिसको मानना पड़ता है। अगर कोई व्यक्ति क्षय रोग से ग्रसित है तो उसे उस कुंड में लगातार छह माह तक स्नान करना होगा। ये महिमा है सोमनाथ की।
शिव पुराण में ये भी लिखा है कि अगर किसी वजह से आप सोमनाथ के दर्शन नहीं कर पाते हैं तो सोमनाथ की उत्पति की कथा सुनकर भी आप वही पौराणिक लाभ उठा सकते हैं।
इस तीर्थ पर और भी तमाम मुरादें हैं जिन्हें पूरा किया जा सकता है। क्योंकि ये तीर्थ बारह ज्योतिर्लिंगों में से सबसे महत्वपूर्ण है।
धरती का सबसे पहला ज्योतिर्लिंग सौराष्ट्र में काठियावाड़ नाम की जगह पर स्थित है। इस मंदिर में जो सोमनाथ देव हैं उनकी पूजा पंचामृत से की जाती है। कहा जाता है कि जब चंद्रमा को शिव ने शाप मुक्त किया तो उन्होंने जिस विधि से साकार शिव की पूजा की थी, उसी विधि से आज भी सोमनाथ की पूजा होती है।
यहां जाने वाले जातक अगर दो सोमवार भी शिव की पूजा को देख लेते हैं तो उनके सारे मनोरथ पूरे हो जाते हैं। अगर आप सावन की पूर्णिमा में कोई मनोरथ लेकर आते हैं तो भरोसा रखिए उसके पूरा होने में कोई विलंब नहीं होगा।
अगर आप शिवरात्रि की रात यहां महामृत्युंजय मंत्र का महज एक सौ आठ बार भी जाप कर देते हैं तो वो सारी चीजें आपको हासिल हो सकती जिसके लिए आप परेशान हैं।
ये है इस धरती के सबसे पहले ज्योतिर्लिंग की महिमा। शिव पुराण में ये कथा महर्षि सूरत जी ने दूसरे ऋषियों को सुनाई है। जो जातक इस कथा को ध्यान से सुनते हैं या फिर सुनाते हैं उनपर चंद्रमा और शिव दोनों की कृपा होती है। चंद्रमा शीतलता के वाहक हैं। उनके खुश होने से इंसान मानसिक तनाव से दूर होता है। और शिव इस जगत के सार हैं। उनके खुश होने से जीवन के सारे मकसद पूरे हो जाते हैं।
अनादि, अनंत, देवाधिदेव, महादेव शिव परंब्रह्म हैं| सहस्र नामों से जाने जाने वाले त्र्यम्बकम् शिव साकार, निराकार, ॐकार और लिंगाकार रूप में देवताओं, दानवों तथा मानवों द्वारा पुजित हैं| महादेव रहस्यों के भंडार हैं| बड़े-बड़े ॠषि-महर्षि, ज्ञानी, साधक, भक्त और यहाँ तक कि भगवान भी उनके संम्पूर्ण रहस्य नहीं जान पाए|.सदाशिव भक्त.com उन्ही परंपिता जगतगुरू महादेव शिव के चरित्रचित्रण की एक तुच्छ किंतु भक्तिपूर्ण प्रयास है …


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