Saturday, June 13, 2009

सावन में शिव की महिमा

शिव तत्व से ही सृष्टि उत्पन्न हुई। इसलिए सृष्टि के जन्मदाता का विचार तो हो सकता है, लेकिन शिव तो अजन्मा, अविनाशी, अखंड हैं। वे तो स्वयं मृत्यु के स्वामी, संहार के देवता हैं। संहारक का कौन संहार करेगा। भगवान शिव तो जीवन और मृत्यु दोनों के साक्षी हैं। संपूर्ण सृष्टि राममय है और यह अनंत बार भगवान शिव से ही प्रकट हुई है: शंभु कीन्ह यह चरित सुहावा। भगवान शिव श्रद्धा और विश्वास के समग्र रूप हैं। जीवन की कोई भी क्रिया तभी प्रारंभ होती है, जब व्यक्ति में विश्वास और श्रद्धा का भाव होता है। एक का भी अभाव होने पर क्रिया नहीं हो सकती। भगवान शिव पूर्ण विश्वास हैं। कहते हैं कि जो टूट जाए वह श्वास है और जो कभी न टूटे वह विश्वास है। विश्वास जीवन है, अविश्वास मृत्यु। हमारे शिव सदैव वटवृक्ष की छाया में ही बैठते हैं। वटवृक्ष भी विश्वास है: वट विश्वास अचल नहीं धर्मा। भगवान शिव को सभी भोला कहकर पुकारते हैं। इसका कारण यह है कि विश्वास सदैव भोला होता है। इसमें कोई छल या दिखावा नहीं होता। अविश्वासी व्यक्ति संशयालु होता है। अंदर से बहुत कमजोर होता है। इसी के कारण वह छल कपट करता है। शिव सदैव सहज रहते हैं, इसलिए शांत रहते हैं। धरे शरीर शांत रस जैसे। भगवान शिव का साक्षात्कार करने के लिए एक बार ठीक से उनके स्वरूप का दर्शन करें:''जटा मुकुट सुरसरित सिर-लोचन नलिन विशाल। नीलकंठ लावण्यनिधि-सोह बाल विधु भाल।'' जटा मुकुट: सभी लोग स्वर्ण मुकुट चाहते हैं। मुकुट प्रतिष्ठा का प्रतीक है। जटाएं झंझट-जंजाल और क्लेशों की प्रतीक हैं। शिव ने सृष्टि के संपूर्ण जंजालों को भी अपने शीश पर प्रतिष्ठित कर लिया है। झंझटों को भी शोभा का रूप दे दिया है। हम जहां तहां झंझटों की जटाएं खोलकर बैठ जाते हैं। शिव इन झंझटों को भी आभूषण के रूप में स्वीकार करते हैं। सुरसरित सिर: शिव के शांत रहने का यह भी कारण है कि इनके शीश पर श्री गंगाजी हैं। श्रीगंगाजी उज्ज्वलता, धवलता और शीतलता के सतत प्रवाह की प्रतीक हैं। निर्मलता और पवित्रता श्रीगंगाजी का गुण है। जिसके विचारों में गंगा जैसे गुण होंगे वह सदैव शांत और प्रवहवान रहेगा। शिव का तीसरा गुण है: ''लोचन नलिन विशाल'' भगवान शिव के नेत्र निर्लिप्त हैं, सुंदर हैं और विशाल हैं। नीलकंठ- जगत के संपूर्ण विष को अपने कंठ में ही समा लेता है। न तो सटकता है और न ही उगलता है, वही शिव है। विषैली बातों को पेट में गांठ बांधकर भी मत रखिए और बोलिए भी मत। अन्यथा संघर्ष और अशातिं बनी रहेगी। शिव विष पीकर भी कंठ से जगत को सदैव श्रीराम कथा का अमृत प्रदान करते हैं ''हरषि सुधा सम गिरा उचारी'' जो इतने गुण धारण कर लेता है, वह स्वयं ही लावण्य निधि हो जाता है। सोह बाल विधु भाल का अर्थ है चंद्र जैसे शीतल, निर्मल, उज्ज्वल विचारों वाले मन को अपने शीष पर प्रतिष्ठा देते हैं। सीखने के लिए शिवजी के स्वरुप को ग्रहण करना आवश्यक है। शिव सदैव श्मशान में विचरण और नंदी की सवारी करते हैं। श्मशान मृत्यु की याद दिलाता है जो प्रतिदिन मृत्यु को याद रखेगा वह अनेकानेक प्रकार केपापों से बच जायेगा। मौत पड़ोसी को तो जानती है लेकिन मेरा घर उसे मालूम नहीं है। शिव कहते हैं कि भैया भले ही श्मशान में मत रहो पर सदा श्मशान को याद रखो कि एक दिन यहां भी आना है। इसी के साथ भगवान शिव सदैव नंदी की सवारी करते हैं। नंदी धर्म का प्रतीक है। सदैव धर्म के वाहन पर चलोगे तो जीवन यात्रा सुखद और आनंदमय होगी। हम धर्म की चर्चा तो बहुत करते हैं लेकिन धर्म पर चलते नहीं हैं। यही चाहते हैं कि दूसरे सभी धर्म पर चलें। मेरा तो यही मार्ग ठीक है। शिव की कृपा चाहिए तो जीवन को श्रद्धा से भरिये और भगवान श्रीराम की कृपा चाहिए तो जीवन शिव से भरिये। भगवान ने सभी को चेतावनी केस्वर में कहा है-'' शिव पद कमल जिन्हहिं रति नाहीं- रामहि ते सपनेहु न सोहाहीं।।'' श्रीनारदजी को तो भगवान ने बड़े स्पष्ट शब्दों में कह दिया है- ''जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी- सो न पाव मुनि भगति हमारी''निष्कर्ष यही है कि प्रभु की कृपा चाहिए तो शिव कृपा प्राप्त करें और शिव कृपा प्राप्त करनी हो तो सहज बनें, सरल बनें। भोले बम-बम-बम का यही सार्थक अर्थ है।
ऐसे करें शिवरात्रि का पूजन वािर्थियों के लिए -भोले को गंगाजल और दूध से स्नान कराएंगे, बुद्धि कुशाग्र होगी। व्यापारियों के लिए-कारोबार में घाटे को दूर करने केलिए शंकर जी को ग्यारह लोटे जल के साथ घी से स्नान कराएं। - ऋण मुक्ति के लिए - गणेशजी का मंत्र से ध्यान करें: - मंगलो भूमिपुत्रश्च ऋणहर्ता धनप्रद: ऋणहर्ता स्थिरासनो महाकाय: सर्वकर्मविरोधक:॥ तदुपरांत भगवान शंकर का रुद्राभिषेक करें और मंत्र पढ़ें- यत्र यत्र स्थितो देव: सर्वव्यापी महेश्वर: यो गुरु सर्व देवानां यकाराय नमोनम:। रोग नाश के लिए -काले तिलों से शंकर जी का जलाभिषेक करें। -11 कमलगट्टे अर्पण करें।
सुख और शातिं केलिए -गंगाजल, दूध, दही, घी, चीनी से शंकर जी का अभिषेक करें। महिलाओं के लिए -पार्वती और शंकर दोनों की पूजा करें। पार्वती जी की कृपा प्राप्त करने के लिए सुहाग का सामान विशेषकर सिंदूर अर्पण करें। महत्व -इस शिवरात्रि पर गौरी और शंकर केविवाह का प्रसंग अवश्य पढ़ना चाहिए। श्रीरामचरितमानस के बालकांड की 91 से लेकर 100 संख्या की चौपाई का स्तवन करें। इसमें भगवान शंकर के शृंगार और विवाह प्रसंग हैं। पाणिग्रहण जब कीन्ह महेशा, हिय हरषे तब सकल सुरेसा। बेदमंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं। द्वादशी और त्रयोदशी या त्रयोदशी और चतुर्दशी के मिलन की रात को यज्ञ भी इष्ट फल देता है।

रोगों से मुक्ति दिलाने वाली: मणि महेश झील

हिमालय सदियों से पर्वतारोहियों, पदयात्रियों और घुमक्कड़ों के लिए चुनौती रहा है। हिमाचल प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में स्थित झीलें, बर्फ से ढकी चोटियां और बुग्याल, प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर घाटियां और विशाल जलप्रपात प्रकृति से प्यार करने वालों को आकर्षित करते रहे हैं। परंतु ऐसे प्राकृतिक स्थल कम हैं, जहां एक साथ जलप्रपात, झील और बर्फ से ढकी चोटियां मिले। अलबत्ता, एक ऐसी अछूती तथा धार्मिक आस्थाओं से जुड़ी जगह है चंबा स्थित मणि महेश झील।

पीर पंजाल की हिम श्रृंखला में जिला चंबा (हिमाचल प्रदेश) के पूर्वी भाग में तहसील भरमौर क्षेत्र में कैलाश शिखर (समुद तल से ऊंचाई 19000 फुट) तथा मणि महेश झील (ऊंचाई 15000 फुट) स्थित है। पौराणिक कथाओं में यह झील भगवान शिव की क्रीड़ा स्थली मानी गई है। इसकी उत्तरी सीमा में जंगस्कर पर्वत श्रृंखला तथा दक्षिण की ओर धौलाधार पर्वत श्रृंखला पड़ती है।

यहां के निवासी हर साल राधा अष्टमी के मौके पर इस स्थान पर लगने वाले मेले में बड़े उत्साह के साथ भाग लेते हैं। हजारों की संख्या में शिव भक्त मणि महेश झील में स्नान कर पूजा अर्चना करते हैं और अपनी मनौती पूर्ण होने पर लोहे के त्रिशूल, कड़ी व झंडी आदि चढ़ाते हैं। कहा जाता है कि राधा अष्टमी के दिन सूर्य की किरणें जब कैलाश शिखर पर पड़ती हैं, तो शिखर पर प्राकृतिक रूप से बने शिव लिंग से मणि जैसी आभा निकलती है और उसकी किरणें जब झील के पानी पर पड़ती हैं, तो उस समय स्नान करने से मनुष्य को अनेक रोगों से मुक्ति मिलती हैं।

चंबा से भगवान शिव की चांदी की छड़ी लेकर चली यह यात्रा राख, खड़ामुख आदि जगहों से होते हुए भरमौर पहुंचती है, जहां चौरासी स्थल नामक जगह पर भगवान मणि महेश का मंदिर स्थित है। भरमौर नौवीं-दसवीं शताब्दी में राजा साहिल वर्मन के पूर्वजों द्वारा बसाया गया था। बुजुर्ग बताते हैं कि यहां किसी किले या राजा के महल का न होना इस विश्वास को दृढ़ करता है कि राजा स्वयं को प्रजा के समान ही समझता था और अपने लिए भी उसने साधारण घर को ही निवास स्थान बनाया।

चंबा से भरमौर (65 किलो मीटर की दूरी) बस द्वारा साढे़ तीन घंटों में पहुंचा जा सकता है। बुढ़ल नदी के बाएं किनारे पर बसा भरमौर ब्रह्मापुर का अपभ्रंश है, जो कालांतर में बिगड़ते-बिगड़ते पहले ब्रहमौर और अब भरमौर हो गया। भरमौर से चल कर यह छड़ी हरसर, छणछो होती हुई राधा अष्टमी के दिन मणि महेश पहुंचती है।

जब मेरे कुछ मित्रों ने मणि महेश की यात्रा का कार्यक्रम बनाया, तो कैलाश शिखर के दर्शन तथा इसकी पौराणिक और रहस्यमय कथाओं की हकीकत जानने की मेरी इच्छा भी प्रबल हो उठी। हमारा दल चंबा होते हुए जब भरमौर पहुंचा, तो मौसम साफ था। चौरासी स्थल स्थिल मणि महेश और ब्राह्माणी देवी के मंदिरों के दर्शन और आशीर्वाद लेने के पश्चात दल ने भरमौर से हरसर तक पैदल यात्रा प्रारंभ की। अब सड़क बन जाने से बस भी हरसर तक जाने लगी हैं। परंतु हमारे दल ने भरमौर से ही अपनी पद यात्रा प्रारंभ की। हरसर तक का 15 किलोमीटर तक का पहाड़ी रास्ता बुढ़ल नदी के साथ-साथ ही चलता है और अपने मनोहारी दृश्यों के लिए प्रसिद्ध है। यह पैदल यात्रा करीब चार घंटों में पूरी हुई।

तंग घाटी में बसा हरसर इस क्षेत्र का अंतिम गांव है तथा यहां भी भगवान शिव का मंदिर है। हमने वहीं रात्रि विश्राम किया। अगले दिन हरसर से हम सुबह नौ बजे छणछो के लिए निकले। यह रास्ता काफी कठिन चढ़ाई वाला है। रात में वर्षा से पहाड़ खिसकने के कारण रास्ता और खतरनाक हो गया था।

हरसर से थोड़ा आगे बढ़ने पर संगम पुल से एक रास्ता बायीं ओर कुगती-पास के लिए जाता है। बुढ़ल नदी के बाएं किनारे के साथ-साथ 8000 फुट की ऊंचाई से 10000 फुट की ऊंचाई वाली जगह छणछो तक पहुंचने में चार घंटे का समय लगा, क्योंकि रास्ता दुर्गम और खड़ी चढ़ाई वाला था। थोड़ा-सा चलने पर ही सांस फूलने लगती थी।

रास्ते में पड़ने वाले प्राकृतिक दृश्यों और नदी पर जमी बर्फ को देखते-देखते हम छणछो पहुंच गए। यह एक प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर घाटी है। यहां पहुंचते ही हमने अपने टेंट लगाए और शाम का नाश्ता करने के बाद रात का भोजन बनाने में जुट गए। छणछो का अर्थ है - झरनों में धनी झरना अर्थात् राजा।

छणछो के विशाल जल प्रपात के संबंध में भी एक पौराणिक कथा है। बताते हैं कि शिवजी भस्मासुर से बचते हुए इसी प्रपात की कंदराओं के पीछे आकर छिपे थे। जब भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर भस्मासुर को भस्म कर दिया, तभी भगवान शिव यहां से निकले।

छणछो में काफी ठंड थी और शून्य से भी कम तापमान में रात में नींद भी ठीक से नहीं आई। परंतु सुबह उठे तो सभी साथी उत्साह में थे। नाश्ता आदि करने के बाद हम सब तुरंत मणि महेश के लिए चल पडे़। यहां से गौरी कुंड तक का रास्ता बहुत ही कठिन एवं खड़ी चढ़ाई का है। ऑक्सिजन की कमी स्पष्ट रूप से खलती है।

छणछो से यहां के प्रपात का दृश्य देखते ही बनता है। बुढ़ल नदी के ऊपर जमी बर्फ पर चलते हुए हमेशा यह डर लगा रहता है कि नीचे से पिघल रही बर्फ में अचानक दरार न पड़ जाए। बुढ़ल नदी को पार करने के बाद नदी के दायीं ओर चलते हुए भैरव घाटी पड़ती है। छणछो से पांच कि.मी. का कठिन पदयात्रा के पश्चात सामने फैली बर्फ की दीवार नजर आई। सभी साथी जो आगे चल रहे थे, यहां आकर रुक गए, क्योंकि रास्ता नजर नहीं आ रहा था।

खतरों से जूझने की हिम्मत हो और प्रकृति पर विश्वास तो कोई कारण नहीं कि बाधाओं को पार न किया जा सके और ऐसे अवसरों पर ही एक अनुभवी पदयात्री की पहचान होती है। उस बर्फ की दीवार को आइस-एक्स (बर्फ काटने की कुल्हाड़ी) द्वारा काट कर रास्ता बनाया गया और सभी साथियों ने धीरे-धीरे उस रास्ते को पार किया। एक तरफ कई हजार फुट नीचे नदी तथा दूसरी तरफ बर्फ की दीवार। जरा-सी भी असावधानी से दुर्घटना घट सकती थी।

यहां की चढ़ाई के पश्चात हम जब गौरी कुंड पहुंचे तो कैलाश शिखर (ऊंचाई 19000) के प्रथम दर्शन किए तथा दर्शन करते ही सारी थकान दूर हो गई। गौरी कुंड के बारे में कहा जाता है यह माता गौरी का स्नान-स्थल था, इसलिए मेले में आने वाली महिला तीर्थयात्री यहां अवश्य स्नान करती हैं। यहां से दो किलोमीटर की सीधी चढ़ाई चढ़ने के पश्चात हम मणि महेश झील पहुंचे। बफीर्ली चोटियों से घिरी 15000 फुट की ऊंचाई पर स्थित यह झील दर्शनीय है। यहां का नीला स्वच्छ जल अनेक रोगों को दूर करने वाला माना गया है। सभी साथियों ने यहां स्नान किया और पूजा-अर्चना के बाद झील की परिक्रमा की। बादलों से ढके कैलाश शिखर के दर्शनों के लिए दो घंटों से भी अधिक प्रतीक्षा करनी पड़ी। बादल छंटने पर ही कुछ क्षणों के लिए दर्शन हुए और हमारी तपस्या सफल हुई।

इसके बाद तुरंत मौसम अचानक खराब हो गया, अत: वापस जाने की तैयारी की। छणछो तक आते-जाते हमारे सभी साथी बारिश में काफी भीग गए थे और ठंड भी काफी बढ़ गई थी। किंतु भगवान शिव कि स्थली कैलाश शिखर के दर्शनों के पश्चात हमारे साथियों के उत्साह की कमी नहीं थी और इन प्राकृतिक मुश्किलों के बावजूद सभी साथी कुशलपूर्वक छणछो वापस पहुंच गए। छणछो से हरसर एवं भरमौर होते हुए इस सफल पदयात्रा अभियान के पश्चात चंबा होते हुए हम सभी इस अभियान यात्रा की स्मृतियों को संजोए दिल्ली लौटे।

इस वर्ष यह यात्रा जन्माष्टमी को चंबा के लक्ष्मी नारायण मंदिर से प्रारंभ हुई है, जो राधा अष्टमी सात सितंबर तक चलेगी।

दुर्गा दत्त शर्मा



About Shivlingam


Lingodbhavamurthy is an iconic representation of Shiva, installed in the rear devakoshta (niche) of the garbagriha (sanctum) of all Shiva temples. The story of Lingodbhavar is that of the attempts of Vishnu and Bhrama to discover the origins (the beginning Aadi and the end Antha) of Shiva, as stated in three of the puranas - the Kurma Purana, the Vayu Purana and Shiva Purana.

Vishnu was engaged in his yoganidhra - the slumber of yoga - at the end of a kalpa, in the waters of the great deluge, when there appeared before him, Bhrama emerging from a great illumination. Bhrama introduced himself to Vishnu as the Creator of the Universe, to which Vishnu replied that he was the architect of the Universe. An argument ensued between both as to their superiority over one another, when there appeared before them - a huge lingam of fire - with tongues of flames blazing out of it.

Curious to trace the origins of this column of fire, Bhrama assumed the form of a swan and flew upwards, while Vishnu assumed the form of a boar, and burrowed down into the earth. Days of search in either direction proved futile, and hence the duo surrendered to this column of fire with prayers. Shiva then appeared out of this column of fiery lingam, with a thousand arms and legs, with the sun, moon and fire as his three eyes, bearing the pinaka bow, wearing the hide of an leephant, bearing the trishul, and addressed Vishnu and Bhrama in a thunderous voice, explaining that the two were born out of him, and that the three were then separated out into three different aspects of divinity.

The non-anthropomorphic form Shivalingam is a representation of this infinite cosmic column of fire, whose origins were not tracable by Bhrama or Vishnu. The Shivalingam is the center of reverence and worship in all Saivite temples.

The manifestation of Shiva in this column of fire in front of Bhrama and Vishnu, is carved in stone, as the Lingodbhavamurthy manifestation of Shiva, and is always enshrined in the rear niche of the sanctum enshring a Shivalingam. Since most temples face east, Lingodbhavar faces West.

This legend described above is held at the vast Arunachaleswara temple complex at Tiruvannamalai, where the sacred Annamalai hill itself, is considered to be a manifestation of this cosmic column of fire. Tiruvannamalai, is one of the Pancha Bhoota Stalas, representing the primordial element fire.

There is another interesting aspect to this legend. While Bhrama was flying upwards in the guise of a swan, he saw the petals of a ketaki flower drifting down. Tired by the futility of his efforts to reach the top of the mysterious column of fire, Bhrama requested the flower to acquiese to his lie that he had seen the top of the column where the flower had previously resided. Accompanied by his accomplice, Bhrama confronted Vishnu and asserted that he had indeed discovered the origin of the cosmic column. An enraged Shiva appeared out of the fiery column and cursed Bhrama so that he would not be worshipped in temples on earth. This legend relates to the fact that there are hardly any temples dedicated to Bhrama in India. There is a shrine to Bhrama at Uttamar Koyil in Tamilnadu, and Bhrama is also represented in the devakoshtas (niches) in Shiva temples; there are thus no Bhrama temples of any significance in India.

अनादि, अनंत, देवाधिदेव, महादेव शिव परंब्रह्म हैं| सहस्र नामों से जाने जाने वाले त्र्यम्बकम् शिव साकार, निराकार, ॐकार और लिंगाकार रूप में देवताओं, दानवों तथा मानवों द्वारा पुजित हैं| महादेव रहस्यों के भंडार हैं| बड़े-बड़े ॠषि-महर्षि, ज्ञानी, साधक, भक्त और यहाँ तक कि भगवान भी उनके संम्पूर्ण रहस्य नहीं जान पाए|.सदाशिव भक्त.com उन्ही परंपिता जगतगुरू महादेव शिव के चरित्रचित्रण की एक तुच्छ किंतु भक्तिपूर्ण प्रयास है …


All original writings (articles and poems) on this site are copyrighted and licensed (does not apply to translations). Kindly email for permission if you wish to extract verbatim original writings, but feel free to link to individual posts.