
भगवान शिव में आस्था रखने वाले श्रद्धालुओं के लिए महाशिवरात्रि का त्योहार विशेष महत्व रखता है। इस अवसर पर देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थित द्वादश ज्योतिर्लिगों के दर्शन और पूजन का विशेष महत्व है। श्रीशिव महापुराण, रामायण, महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में भी इन द्वादश ज्योतिर्लिगों की महिमा का उल्लेख है। देश के प्रमुख हिस्सों में स्थित द्वादश ज्योतिर्लिग इस प्रकार हैं:
उत्तराखंड के केदारनाथ
उत्तराखंड में स्थित केदारनाथ ज्योतिर्लिग की स्थापना का इतिहास संक्षेप में यह है कि हिमालय के केदार-श्रृंग पर विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और वहां ज्योतिर्लिग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया।
काशी के विश्वेश्वर
श्रीविश्वेश्वर ज्योतिर्लिग वाराणसी में विराजमान है। इस मंदिर की स्थापना अथवा पुन: स्थापना आदि शंकराचार्य ने स्वयं अपने कर कमलों से की थी। इस प्राचीन मंदिर को मुगल आक्रमणकारियों द्वारा काफी क्षति पहुंचाई गई थी। बाद में शिवभक्त महारानी अहिल्याबाई ने इस मंदिर के पास भगवान विश्वनाथ का एक सुंदर नया मंदिर बनवा दिया और पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने इस पर स्वर्ण कलश चढवा दिया।
नासिक में ˜यंबकेश्वर
गोदावरी नदी के उद्गम स्थान नासिक के समीप अवस्थित ˜यंबकेश्वर भगवान की भी बडी महिमा है। गौतम ऋषि तथा गोदावरी के प्रार्थनानुसार भगवान शिव ने इस स्थान में वास करने की कृपा की और ˜यंबकेश्वर नाम से विख्यात हुए।
चंद्र के इष्ट सोमनाथ
सोमनाथ काठियावाड के श्रीप्रभास क्षेत्र में विराजमान हैं। यहां के प्रमुख ज्योतिर्लिग सोमनाथ की कथा संक्षेप में यह है कि दक्ष प्रजापति ने अपनी सभी 27 कन्याओं का विवाह चंद्रदेव के साथ किया था। परंतु चंद्रमा का अनुराग उनमें से एकमात्र रोहिणी के प्रति था और अन्य कन्याओं की वह उपेक्षा करते थे। इससे क्षुब्ध होकर दक्ष ने चंद्रमा को शाप दिया-तुम्हारा क्षय हो जाए। फलत: चंद्रमा क्षयग्रस्त हो गए। फिर उन्होंने छ: माह तक निरंतर घोर तप किया। फलत: भगवान शिव प्रसन्न हुए और उन्होंने मृतप्राय चंद्रमा को अमरत्व प्रदान किया। इस प्रकार चंद्रदेव शापमुक्त हो गए और शिव जी भक्तों के उद्धार के लिए ज्योतिर्लिग रूप में सदा के लिए इस क्षेत्र में वास करने लगे।
शिव का एक और नाम घुश्मेश्वर
यह ज्योतिर्लिग महाराष्ट्र के मनमाड से 66 मील दूर दौलताबाद स्टेशन के पास है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में एक कथा प्रचलित है- दक्षिण में देवगिरि पर्वत के निकट सुधर्मा और सुदेहा नामकनि:संतान ब्राह्मण दंपती रहते थे। संतान प्राप्ति केलिए सुदेहा ने अपनी छोटी बहन घुश्मा से अपने पति का विवाह करवा दिया। घुश्मा प्रतिदिन नियमपूर्वक 101 पार्थिव शिवलिंग बनाकर उनका विधिवत पूजन करती थी। भगवान शंकर के आशीर्वाद से उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। परंतु समय बीतने के साथ-साथ सुदेहा के अंदर ईष्र्या का भाव उत्पन्न हुआ। एक रोज रात्रि के समय जब वह बालक नदी के किनारे सैर कर रहा था तो सुधर्मा ने उसकी हत्या कर डाली और उसके शव को ले जाकर उसी सरोवर में छोड दिया, जिसमें घुश्मा पार्थिव शिवलिंग विसर्जित करती थी। प्रतिदिन की तरह घुश्मा शिवजी की पूजा करके शिवलिंग को विसर्जित करने सरोवर चली गई। वहां उसने देखा कि सरोवर से पुत्र जीवित बाहर निकल आया। धर्मपरायण घुश्मा की प्रार्थना से प्रसन्न होकर शिवजी वहीं ज्योतिर्लिग के रूप में वास करने लगे और घुश्मेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए।
दक्षिण के मल्लिकार्जुन
तमिलनाडु के कृष्णा जिले में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल पर्वत है। इसे दक्षिण कैलास कहते हैं। इस स्थान के संबंध में पौराणिक कथा है कि जब विश्व परिक्रमा की प्रतियोगिता में श्रीगणेश को शिव जी ने विजयी घोषित किया तो इस बात से रुष्ट होकर कार्तिकेय क्रौंच पर्वत पर चले गए। माता-पिता ने नारद को भेजकर उन्हें वापस बुलाया, पर वे न आए। अंत में, माता का हृदय व्याकुल हो उठा और पार्वती शिवजी को लेकर क्रौंच पर्वत पर पहुंचीं, किंतु उनके आने की खबर पाते ही वहां से भी कार्तिकेय भाग खडे हुए और काफी दूर जाकर रुके। कहते हैं, क्रौंच पर्वत पर पहुंच कर शंकर जी ज्योतिर्लिग के रूप में प्रकट हुए और तब से वह स्थान श्रीमल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिग के नाम से प्रख्यात है।
उज्जैन में महाकालेश्वर
श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिग मालवा प्रदेशांतर्गत शिप्रा नदी के तट पर उज्जैन नगरी में है। इसकी स्थापना के संबंध में कथा प्रचलित है कि एक दिन श्रीकर नामक एक बालक रास्ते से गुजर रहा था। शिप्रा नदी के तट पर नगर के राजा को शिवपूजन करते देखा। घर लौटते समय उसने रास्ते से एक पत्थर का टुकडा उठा लिया और घर आकर उसी को शिव रूप में स्थापित कर श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा करने लगा। माता भोजन के लिए बुलाती रही, पर बालक की समाधि नहीं टूटी। अंत में, झल्लाकर उसने पत्थर का टुकडा वहां से उठाकर दूर फेंक दिया। तब सरल चित्त भक्त बालक ने विलाप करते हुए शंभु को पुकारना शुरू किया और रोते हुए वह अचेत हो गया। अंततोगत्वा भोलानाथ प्रसन्न हुए और ज्यों ही होश में आकर उसने आंखें खोलीं तो उसने देखा कि सामने एक अति विशाल स्वर्ण कपाटयुक्त रत्नजटित मंदिर खडा है और उसके अंदर एक अति प्रकाशयुक्त ज्योतिर्लिग देदीप्यमान हो रहा है।
पर्वतों से घिरे ओंकारेश्वर
यह स्थान मध्य प्रदेश स्थित मालवा में नर्मदा नदी के तट पर है। यहीं मांधाता पर्वत पर ओंकारेश्वर तीर्थ है। प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा मांधाता बहुत बडे तपस्वी थे। उनके पुत्र अंबरीश और मुचकुंद भी प्रसिद्ध भक्त थे। राजा मांधाता ने इस स्थान पर घोर तपस्या करके शंकरजी को प्रसन्न किया था। यहां शिवलिंग के चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है। कुछ लोग इस पर्वत को ओंकार रूप मानते हैं और परिक्रमा करते हैं। शिवपुराण में श्रीओंकारेश्वर के दर्शन तथा नर्मदा स्नान का बडा माहात्म्य वर्णित है।
झारखंड में वैद्यनाथ धाम
झारखंड स्थित वैद्यनाथ धाम भी ज्योतिर्लिग है। इसकी स्थापना की कथा यह है कि एक बार शिवजी को प्रसन्न करने के लिए रावण अपने सिर काटकर उन्हें अर्पित कर रहा था।नौ सिर चढाने के बाद वह दसवां सिर भी काटने को ही था कि शिव जी प्रकट हो गए। उन्होंने उसके दसों सिर वापस ज्यों-के-त्यों कर दिए और फिर वरदान मांगने को कहा तो रावण ने लंका जाकर उस शिवलिंग को वहां स्थापित करने की आज्ञा मांगी। शिवजी ने अनुमति तो दे दी, पर इस चेतावनी के साथ कि यदि मार्ग में वह इसे पृथ्वी पर रख देगा तो वह वहीं अचल हो जाएगा।
रावण शिवलिंग लेकर चला, पर मार्ग में उसे लघुशंका निवृत्ति की आवश्यकता हुई और वह उस शिवलिंग को एक राहगीर को थमाकर चला गया। जब रावण के लौटने में देर हुई तो उसने शिवलिंग को भूमि पर रख दिया। लौटने पर रावण पूरी शक्ति लगाकर भी उसे उठा न सका और वहां शिवजी ज्योतिर्लिग के रूप में स्थापित हो गए।
गुजरात मेंनागेश्वर
नागेश्वर का मंदिर गुजरात स्थित द्वारिकापुरी के पास स्थित है। इस संबंध में प्रचलित कथा है कि वहां सुप्रिय नामक वैश्य था, जो शिवजी का अनन्य भक्त था। एक बार वह नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था, अचानक दारुक नाम के एक राक्षस ने उस नौका पर आक्रमण किया और उसमें बैठे सभी यात्रियों को अपने नगर में ले जाकर कारागार में बंद कर दिया। उसने अपने अनुचरों को राजा सुप्रिय की हत्या करने का आदेश दिया, परंतु वह इससे भी विचलित नहीं हुआ और शिवजी का ही नाम जपता रहता। फलत: कारागार में ही शिव जी ने उसे ज्योतिर्लिग रूप में दर्शन दिए।
महाराष्ट्र में भीमशंकर
भीमशंकर ज्योतिर्लिग मुंबई से पूर्व की ओर भीमा नदी के तट पर स्थित है। इस शिवलिंग की उत्पत्ति की कथा संक्षेप में इस प्रकार है। कामरूप देश में कामरूपेश्वर नामक एक महाप्रतापी शिवभक्त राजा थे। वहां भीम नामक एक महाराक्षस रहता था, जो भगवान शिव के ध्यान में मग्न राजा के ऊपर तलवार से वार किया। पर तलवार पार्थिव शिवलिंग पर पडी और उसी क्षण शिव जी ने प्रकट होकर राक्षस का प्राणांत कर दिया और ज्योतिर्लिग के रूप में वहीं निवास करने लगे।
जहां राम ने पूजा शिव को
लंका पर चढाई के लिए जाते हुए भगवान रामचंद्र जब रामेश्वरम पहुंचे तो उन्होंने समुद्र तट पर बालुका से शिवलिंग बनाकर पूजन किया था। उसी के बाद से भगवान शिव वहां ज्योतिर्लिग केरूप में प्रकट हुए और स्थायी रूप से वहीं निवास करने लगे।
शिव के निकट वास करना भी उपवास ही है| जब भी जीव, शिव के समीप वास करता है तो मन तथा प्राण के समस्त रंग उनके सम्मुख धूमिल पड़ते है| इस घड़ी जीव स्थूल आहार को ग्रहण नहीं करता, अर्थात इसी को आहार तिव्रत्ति कहते हैं| यह ही महाशिवरात्रि व्रत का महत्व हैं|
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