Saturday, September 26, 2009

शिव

अनादि, अनंत, देवाधिदेव, महादेव शिव परंब्रह्म हैं| सहस्र नामों से जाने जाने वाले त्र्यम्बकम् शिव साकार, निराकार, ॐकार और लिंगाकार रूप में देवताओं, दानवों तथा मानवों द्वारा पुजित हैं| महादेव रहस्यों के भंडार हैं| बड़े-बड़े ॠषि-महर्षि, ज्ञानी, साधक, भक्त और यहाँ तक कि भगवान भी उनकेclip_image001 संम्पूर्ण रहस्य नहीं जान पाए| आशुतोष भगवान अपने व्यक्त रूप में त्रिलोकी के तीन देवताओं में ब्रह्मा एवं विष्णु के साथ रुद्र रूप में विराजमान हैं| ये त्रिदेव, हिन्दु धर्म के आधार और सर्वोच्च शिखर हैं| पर वास्तव में महादेव त्रिदेवों के भी रचयिता हैं| महादेव का चरित्र इतना व्यापक है कि कइ बार उनके व्याख्यान में विरोधाभाष तक हो जाता है| एक ओर शिव संहारक कहे जाते हैं तो दूसरी ओर वे परंब्रह्म हैं जिस लिंगाकार रूप में वे सबसे ज्यादा पूज्य हैं| जहां वे संसार के मूल हैं वहीं वे अकर्ता हैं| जहां उनका चित्रण श्याम वर्ण में होता है वहीं वे कर्पूर की तरह गोरे, कर्पूर गौरं, माने जाते हैं| जिन भगवान रूद्र के क्रोध एवं तीसरे नेत्र के खुलने के भय से संसार अक्रांत होता है और जो अनाचार करने पर अपने कागभुष्डीं जैसे भक्तों तथा ब्रह्मा जैसे त्रिदेवों को भी दण्डित करने से नहीं चुकते, वही आसुतोष भगवान अपने सरलता के कारण भोलेनाथ हैं तथा थोडी भक्ति से ही किसी से भी प्रसन्न हो जाते हैं| एक ओर रूद्र मृत्यु के देवता माने जाते हैं तो महामृत्यंजय भी उनके अलावा कोई दुसरा नहीं …
पर उस विरोधाभाष में भी एका स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है| आइए जानने की कोशिश करतें हैं आसुतोष भगवान के उन मनमोहन रूपों को जिसकी व्याख्यान प्राचीन आचार्यों तथा देवगणों ने कलमबद्ध किया है|

शिव परंब्रह्म हैं

शिव अनादि हैं, अनन्त हैं, विश्वविधाता हैं| सारे संसार में एक मात्र शिव ही हैं जो जन्म, मृत्यू एवं काल के बंधनो से अलिप्त स्वयं महाclip_image002काल हैं| शिव सृष्टी के मूल कारण हैं, फिर भी स्वयं अकर्ता हैं, तटस्थ हैं| सृष्टी से पहले कुछ नहीं था – न धरती न अम्बर, न अग्नी न वायू, न सूर्य न ही प्रकाश, न जीव न ही देव। था तो केवल सर्वव्यपी अंधकार और महादेव शिव। तब शिव ने सृष्टी की परिकल्पना की ।
सृष्टी की दो आवश्यकतायँ थीं – संचालन हेतु शक्ति एवं व्यवस्थापक । शिव ने स्वंय से अपनी शक्ति को पृथक किया तथा शिव एवं शक्ति ने व्यवस्था हेतु एक कर्ता पुरूष का सृजन किया जो विष्णु कहलाय। भगवान विष्णु के नाभि से ब्रह्मा की उतपत्ति हुई। विष्णु भगवान ने ब्रह्मदेव को निर्माण कार्य सौंप कर स्वयं सुपालन का कार्य वहन किया। फिर स्वयं शिव जी के अंशावतार रूद्र ने सृष्टी के विलय के कार्य का वहन किया। इस प्रकार सृजन, सुपालन तथा विलय के चक्र के संपादन हेतु त्रिदेवों की उतपत्ति हुई। इसके उपरांत शिव जी ने संसार की आयू निरधारित की जिसे एक कल्प कहा गया। कल्प समय का सबसे बड़ा माप है। एक कल्प के उपरातं महादेव शिव संपूर्ण सृष्टी का विलय कर देते हैं तथा पुन: नवनिर्माण आरंभ करते हैं जिसकी शुरुआत त्रिदेवों के गठन से होती है| इस प्रकार शिव को छोड शेष सभी काल के बंधन में बंधे होते हैं|
इन परमात्मा शिव का अपना कोई स्वरूप नहीं है, तथा हर स्वरूप इन्हीं का स्वरूप है। शिवलिंग इन्ही निराकार परमात्मा का परीचायक है तथा परम शब्द ॐ इन्हीं की वाणी। (अवश्य देखें शिवलिंग का महत्व)

अर्धनरनारीश्वर…

सृष्टी के निर्माण के हेतु शिव ने अपनी शक्ति को स्वयं से पृथक किया| शिव स्वयं पुरूष लिंग के द्योतक हैं तथा उनकी शक्ति स्त्री लिंग की द्योतक| पुरुष (शिव) एवं स्त्री (शक्ति) का एका होने के कारण शिव नर भी हैं और नारी भी, अतः वे अर्धनरनारीश्वर हैं|
जब ब्रह्मा ने सृजन का कार्य आरंभ किया तब उन्होंने पाया कि उनकी रचनायं अपने जीवनोपरांत नष्ट हो जायंगी तथा हर बार उन्हें नए सिरे से सृजन करना होगा। गहन विचार के उपरांत भी वो किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच पाय। तब अपने समस्या के सामाधान के हेतु वो शिव की शरण में पहुँचे। उन्होंने शिव को प्रसन्न करने हेतु कठोर तप किया। ब्रह्मा की कठोर तप से शिव प्रसन्न हुए। ब्रह्मा के समस्या के सामाधान हेतु शिव अर्धनारीश्वर स्वरूप में प्रगट हुए। अर्ध भाग में वे शिव थे तथा अर्ध में शिवा। अपने इस स्वरूप से शिव ने ब्रह्मा को प्रजन्नशिल प्राणी के सृजन की प्रेरणा प्रदाclip_image002[4]न की। साथ ही साथ उन्होंने पुरूष एवं स्त्री के सामान महत्व का भी उपदेश दिया। इसके बाद अर्धनारीश्वर भगवान अंतर्धयान हो गए।
शक्ति शिव की अभिभाज्य अंग हैं। शिव नर के द्योतक हैं तो शक्ति नारी की। वे एक दुसरे के पुरक हैं। शिव के बिना शक्ति का अथवा शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है। शिव अकर्ता हैं। वो संकल्प मात्र करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी करती हैं। तो फिर क्या हैं शिव और शक्ति?
शिव कारण हैं; शक्ति कारक।
शिव संकल्प करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी।
शक्ति जागृत अवस्था हैं; शिव सुशुप्तावस्था।
शक्ति मस्तिष्क हैं; शिव हृदय।
शिव ब्रह्मा हैं; शक्ति सरस्वती।
शिव विष्णु हैं; शक्त्ति लक्ष्मी।
शिव महादेव हैं; शक्ति पार्वती।
शिव रुद्र हैं; शक्ति महाकाली।
शिव सागर के जल सामन हैं। शक्ति सागर की लहर हैं।
आइये हम समझने की कोशिश करते हैं। शिव सागर के जल के सामान हैं तथा शक्ति लहरे के सामान हैं। लहर क्या है? जल का वेग। जल के बिना लहर का क्या अस्तित्व है? और वेग बिना सागर अथवा उसके जल का? यही है शिव एवं उनकी शक्ति का संबंध। आएं तथा प्रार्थना करें शिव-शक्ति के इस अर्धनारीश्वर स्वरूप का इस अर्धनारीश्वर स्तोत्र द्वारा ।

विलयकर्ता रूद्र

शिव के सभी स्वरूपों में विलयकर्ता स्वरूप सर्वाधिक चर्चित, विस्मयकारी तथा भ्रामक है। सृष्टी का संतुलन बनाए रखने के लिए सृजन एवं सुपालन के साथ विलय भी अतिआवश्यक है| अतः ब्रह्मा एवं विष्णु के पुरक के रूप में शिव ने रूद्र रूप में विलयकर्ता अथवा संहारक की भुमिका का चयन किया| पर यह समझना अतिआवश्यक है कि शिव का यह स्वरूप भी काफी व्यापक है| शिव विलयकर्ता हैं पर मृत्यूदेव नहीं | मृत्यू के देवता तो यम हैं| शिव के विलयकर्ता रूप के दो अर्थ हैं|
विनाशक के रूप में शिव वास्तव में भय,अज्ञान, काम, क्रोध, लोभ, हिंसा तथा अनाचार जैसे बुराईयों का विनाश करते हैं। नकारात्मक गुणों का विनाश सच्चे अर्थों में सकारात्मक गुणों का सुपालन ही होता है। इस प्रकार शिव सुपालक हो विष्णु के पुरक हो जाते हैं। शिव का तीसरा नेत्र जो कि प्रलय का पर्याय माना जाता है वास्त्व में ज्ञान का प्रतीक है जो की प्रत्यक्ष के पार देख सकता है। शिव का नटराज स्वरूप इन तर्कों की पुष्टी करता है।
दुसरे अर्थों में सृजन, सुपालन एवं संहार एक चक्र है और किसी चक्र का आरंभ या अंत नहीं होता| अतः संहार एक दृष्टी से सृजन का प्रथम चरण है| लोहे को पिघलाने से उसका आकार नष्ट हो जाता है पर नष्ट होने के बाद ही उससे नय सृजन हो सकते हैं| तो लोहे के मुल स्वरूप का नष्ट होना नव निर्माण का प्रथम चरण है| उसी प्रकार संहार सृजन का प्रथम चरण है| इस दृष्टी से शिव ब्रह्मा के पुरक होते हैं|

नटराज शिव

नटराज शिव का स्वरूप न सिर्फ उनके संपुर्ण काल एवं स्थान को ही दर्शाता है; अपितु यह भी बिना किसी संशय स्थापित करता है कि ब्रह्माण मे स्थित सारा जिवन, उनकी गति कंपन तथा ब्रह्माण्ड से परे शुन्य की नि:शब्दता सभी कुछ एक शिव में ही निहत है।
नटराज दो शब्दों के समावेश से बना है – नट (अर्थात कला) और राज। इस स्वरूप में शिव कालाओं के आधार हैं| शिव का तांडव नृत्य प्रसिद्ध है| शिव के तांडव के दो स्वरूप हैं|
पहला उनके क्रोध का परिचायक, प्रलंयकारी रौद्र तांडव तथा दुसरा आनंद प्रदान करने वाला आनंद तांडव| पर ज्यदातर लोग तांडव शब्द को शिव के क्रोध का पर्यायclip_image002[6] ही मानते हैं| रौद्र तांडव करने वाले शिव रुद्र कहे जाते हैं, आनंद तांडव करने वाले शिव नटराज|
प्राचीन आचार्यों के मतानुसार शिव के आनन्द तांडव से ही सृष्टी अस्तित्व में आती है तथा उनके रौद्र तांडव में सृष्टी का विलय हो जाता है| शिव का नटराज स्वरूप भी उनके अन्य स्वरूपों की ही भातिं मनमोहक तथा उसकी अनेक व्याख्यायँ हैं।
नटराज शिव की प्रसिद्ध प्राचीन मुर्ति के चार भुजाएं हैं, उनके चारो ओर अग्नि के घेरें हैं। उनका एक पावं से उन्होंने एक बौने को दबा रखा है, एवं दुसरा पावं नृत मुद्रा में उपर की ओर उठा हुआ है।
उन्होंने अपने पहले दाहिने हांथ में (जो कि उपर की ओर उठा हुआ है) डमरु पकड़ा हुआ है। डमरू की आवाज सृजन का प्रतीक है। इस प्रकार यहाँ शिव की सृजनात्मक शक्ति का द्योतक है।
उपर की ओर उठे हुए उनके दुसरे हांथ में अग्नि है। यहाँ अग्नी विनाश की प्रतीक है। इसका अर्थ यह है कि शिव ही एक हाँथ से सृजन करतें हैं तथा दुसरे हाँथ से विलय।
उनका दुसरा दाहिना हाँथ अभय (या आशिस) मुद्रा में उठा हुआ है जो कि हमें बुराईयों से रक्षा करता है।
उठा हुआ पांव मोक्ष का द्योतक है। उनका दुसरा बांया हांथ उनके उठे हुए पांव की ओर इंगित करता है। इसका अर्थ यह है कि शिव मोक्ष के मार्ग का सुझाव करते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि शिव के चरणों में ही मोक्ष है।
उनके पांव के नीचे कुचला हुआ बौना दानव अज्ञान का प्रतीक है जो कि शिव द्वारा नष्ट किया जाता है। शिव अज्ञान का विनाश करते हैं।
चारों ओर उठ रही आग की लपटें इस ब्रह्माण्ड की प्रतीक हैं। उनके शरीर पर से लहराते सर्प कुण्डलिनि शक्ति के द्योतक हैं। उनकी संपुर्ण आकृति ॐ कार स्वरूप जैसी दीखती है। यह इस बाद को इंगित करता है कि ॐ शिव में ही निहित है।
आइये स्मरण करते हैं उन्ही नाटराज शिव को इस नटराज स्तुति में|

योगेश्वर महादेव

शिव योग के जन्मदाता तथा श्रोत हैं। योग विज्ञान का उल्लेख प्राचीनतम हिन्दु ग्रंथों में मिलता है| सभी विज्ञानों से परे, यह विज्ञान शclip_image002[8]रीर एवं आत्मा दोने का ही अध्यन करता है| स्वसन प्रणाली का प्राचीनतम एवं आधिकारिक वर्णन भी सिर्फ योग के पास ही है| योग शारीरिक एवं मानसिक दोनो ही के स्वास्थ के लिए एक सरल मार्ग है|
हमारा शरीर तथा मस्तिष्क जिसमें अपार क्षमताएं हैं पर हम उनका सदोपयोग साधारणत: नहीं कर पातें हैं। योग हमें अपने अधिकतम क्षमता पर पहूँने में सहायक होता है।
शिव अपने व्यक्त स्वरूप में योगी सदृश्य हैं तथा नित योग साधना में निरत रहते हैं। उनकी योग साधना से जिस उर्जा का प्रजनन होता है उसी से यह ब्रह्माण्ड चलायमान है। तो शिव इस संसार में व्याप्त संपुर्ण उर्जा के श्रोत हैं।

महाकाल कालभैरव

तांत्रिक कलाओं के साधक एवं जानकार शिव को कालभैरव अथवा महाकाल के रूप में पूजते हैं| उन अघोरी साधकों का साधनास्थल ज्यादातर श्मशान, वन अथवा ऐसे ही विरान स्थल होते हैं जो भय उत्तपन्न करतें हैं| शिव का यह रूप भी उनके साधकों के अनुरूप ही भय उत्तपन्न करने वाला है|

पशुपतिनाथ

शिव सृष्टि के स्रोत हैं| सभी प्राणीयों के अराध्य हैं| मानवों और देवों के अलावा दानवों एवं पशुओं के भी द्वारा पूज्य हैं, अतः पशुपतिनाथ हैं| प्राचीनतम हरप्पा एवं मोहनजोदारो संकृति के अवशेषों में शिव के पशुपति रूप की कई मुर्तियाँ एवं चिन्ह उपलब्ध हैं|

दिगंबर शिव

दिगंबर शब्द का अर्थ है अंबर (आकाश) को वस्त्र सामान धारण करने वाला। दुसरे किसी वस्त्र के आभाव में इसका अर्थ ( या शायद अनर्थ ) यह भी निकलता है कि जो वस्त्र हिन हो (अथवा नग्न हो)। सही अर्थों में दिगंबर शिव के सर्वव्यापत चरीत्र की ओर इंगित करता है। शिव ही संपूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। यह अनंत अम्बर शिव के वस्त्र सामान हैं।
शिव का एक नाम व्योमकेश भी है जिसका अर्थ है जिनके बाल आकाश को छूतें हों। इनका यह नाम एक बार फिर से उनके सर्वव्यापक चरीत्र की ओर ही इशारा करती है।
शिव सर्वेश्वर हैं। सर्वशक्तिमान तथा विधाता होने के बाद भी वे अत्यंत ही सरल हैं – भोलेनाथ हैं। वे शिघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। उन्हें प्रसनन करने के लिए किसी जटील विधान अथवा आडंबर की आवश्यकता नहीं पड़ती। वे तो भक्ति मात्र देखतें हैं। कोई भी किसी मार्ग द्वारा शिव को प्राप्त कर सकता है।
शिव देवाधिदेव हैं, पर उनमें कोई आडंबर नहीं है, वे सरल हैं, वस्त्र के स्थान पे बाघंबर, आभुषण के नाम पर सर्प और मुण्ड माल, श्रृंगार के नाम भस्म यही उनकी पहचान है| गिरीश योगी मुद्रा में कैलाश पर्वत पर योग में नित निरत रहते हैं| भक्तों के हर प्रकार के प्रसाद को ग्रहण करने वाले महादेव बिना किसी बनावट और दिखावा के होने के कारण दिगंबर कहे जाते हैं|

Friday, September 25, 2009

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका…

इस संपूर्ण जड एवं चेतन संसार के कण कण में ईश्‍वर व्याप्त हैं| हिन्दू धर्म ने इस मूल तत्व को आदि काल में ही जान लिया था| वेद एवं पूराण ३३ करोड देवी देवतों का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं जो कि मानव, पशू, नरपशु, ग्रह, नक्षत्र, वनस्पति तथा जलाशय इत्यादि हर रूप में व्याप्त हैं| पर इनके शिखर पर हैं त्रिदेव … ब्रह्मा, विष्णु एवं सदाशिव| इनमे शापित होने के कारण ब्रह्मा की पुजा नहीं होती तथा जगत में विष्णु तथा सदाशिव ही पूजे जाते हैं|
विष्णु के भक्त वैष्णव कहलाते हैं तथा शिव भक्त शैव्य | पर वास्तव में अन्य कुछ धर्म एंव समुदाय के विपरीत वैष्णव तथा शैव्य हिन्दू धर्म में संघर्ष का कारण नहीं होते| वस्तुतः शैव्य विष्णू को भी पुजते हैं तथा वैष्णव शिव को भी पूजते हैं| तो वैष्णव तथा शैव्य सिर्फ अपने प्रमूख ईष्ट की मान्यता में एक दूसरे से अलग हैं| वैष्णव भगवान विष्णु को सव देवों में श्रेष्ठ मानता है तथा उन्हे त्रिदेवों से उपर परमेश्वर मानता है, तो शैव्य देवाधिदेव सर्वेश्वर शिव को परमेश्वर जानता है| यह आदि काल से चली आ रही परंपरा है| स्वंय वेद एवं पूराण अनेक उदाहरण प्रस्तूत करते हैं जिसमे शिव तथा विष्णु एक दूसरे अपना ही स्वरूप तथा परस्पर आदर्श बतलाते हैं|
पर विघटन प्रकृति का नियम है| वेदोत्तर काल में इस मान्यता में भी अंतर आया| और शैव्य एंव वैष्णव परंपरा का एक कट्‍टर स्वरूप सामने आया … “वीर शैव्य” तथा “वीर वैष्णव”| वीर वैष्णव का अधिक समय शिव तथा शैव्यों के द्वेष में ही बीतता है| वे शैव्यों के साथ संपर्क नहीं बढाते, वे शिव को नहीं पूजते, यहां तक की वे कभी कभी तो वे शैव्यों से जल भी ग्रहण नहीं करते| ठीक उसी प्रकार वीर शैव्य विष्णु तथा वैष्णवों से द्वेष को अपना परम कर्तव्य जानते हैं| वास्तव में ये शैव्य तथा वैष्णव न होकर “वीर” मात्र रह जाते हैं तथा एक दूसरे के विरोधी होने के बाद भी एक ही परंपरा का अनुसरण करते हैं| ये ज्ञान शुन्य होते हैं तथा अपने ही इष्ट के मूल रूप को नहीं जान पाते हैं| संपूर्ण जीवन साधना के बाद भी इन्हे दिव्य ज्ञान प्राप्त नहीं होता तथा इनकी द्वेष भावना बहुदा इनके ही नाश का कारण सिद्ध होती है| वास्तव में ये अपने इष्ट को प्रसन्न करने की अपेक्षा उन्हे भी अप्रसन्न कर देते हैं|
प्रजापती दक्ष का शिव विरोधी होने के कारण सर्वनाश हूआ, यद्यपि वे विष्णू भगवान की शरण में था| ठीक उसी प्रकार परम शिव भक्त होने के बाद भी ॠषि कागभूषंडी को अपने ही इष्ट का क्रोधभाजन बनना पडा तथा उनकी सिद्धियां नष्ट हूईं| कारण उन्होंने भगवान विष्णू के अवतार श्री राम का अनादर किया तथा तथा अपने तत्वज्ञानी गूरू लोमेश को वैष्णव जान उनकी अवहेलना की| वास्तव में लोमेश जैसे ज्ञानी ही परंज्ञान के अधिकारी होते हैं|
यथार्थ में ईश्‍वर एक हैं| वही परम कल्यानकारी तथा सर्वसमुद्भवकारण हैं| शिव का अर्थ होता है कल्यान| अतः जो कल्यानकारी है वही शिव हैं, उही परमात्मा हैं| परमात्मा का कोई स्वरूप नहीं होता| वे शुन्य सामान हैं| रूद्र का अर्थ होता है शुन्य, स्वरूप का ना होना| अतः रूद्र ही परमेश्वर हैं| निराकार परमेश्वर समय, काल तथा कारण के अनुसार अपना स्वरूप ग्रहण करते हैं|
शिवपूराण के अनुसार शिव जी ने ही सृष्टी के संपादन के लिए स्वंय से शक्ति को पृथक किया तथा शिव एवं शक्ति के एका से का विष्णू स्वरूप धारण हूआ| विष्णू से ब्रह्मा की उत्पत्ती हूई| ब्रह्मा ने सृजन, विष्णु ने सुपालन का कार्यभार ग्रहण किया| फिर सृष्टी के पूनरसृजन के हेतू विलय की आवश्यकता होने पर शिव ने ही महादेव रूप धारण कर विलय का कार्य अपने हाथों में लिया|
विष्णुपूराण के अनुसार परमेश्‍वर ही ब्रह्मा बन कर सृष्टी की रचना करते हैं, वे ही विष्णू बन कर सृष्टी का सुपालन करते हैं, तथा आयू के शेष हो जाने पर वे ही सदाशिव बन कर संहार करते हैं| वास्तव में वे एक ही हैं तथा ये विभिन्न नाम किसी व्यक्ति सामान देवों के नही वरण उन पदों तथा उपाद्धीयों के हैं जिन्हे धारण करण ईश्‍वर अपना कार्य कर रहे होते हैं| यह ठीक उसी प्रकार है जैसे हम एक हैं पर कोई हमें पूत्र जानता है तो कोई पिता, कोई शिष्य जानता है तो कोई गूरु, तथा हम ही किसी के लिए मित्र होते हैं, किसी के लिए शत्रू | और अनेकों के लिए तो हम कूछ होते भी नहीं| पर इन सब के मध्य हम एक ही होते हैं|
तो फिर विवाद कैसा? कौन ब्रह्मा, विष्णु, महेश? कौन शिव, कौन शक्ति? जब वे एक ही हैं तो क्या अंतर पडता है यदि कोई उन्हे विष्णु के नाम से जाने तो कोई शिव के नाम से जाने तथा कोई शक्ति के नाम से?
ईश्वर एक हैं| वे तीन त्रिदेवों अथवा ३३ करोड देवताओं में ही नहीं, अपितू संपूर्ण सृष्टी के कण कण में व्याप्‍त हैं| वे हमारे नश्‍‍वर शरीर के अन्दर की आत्मा हैं| वे हमारे सदविचार हैं|
ब्रह्मा कर्ता हैं, विष्णू कार्य तथा कार्यफल हैं, शिव कारण हैं| त्रिदेव एक वृक्ष के सामन हैं| ब्रह्म उस वृक्ष के तना हैं, विष्णु उस वृक्ष के विस्तार है, डालिया, पत्ते, पूष्प तथा फल सामान हैं| सदाशिव उस वृक्ष के जड हैं|
शिव जी की आरती इसी तत्व को संबोधित है| वास्तव में ये त्रिगूण शिव जी की आरती है जिसमे स्पष्ट शब्दों में उलेखित है …
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव जानत अविवेका|
प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका||

Tuesday, September 22, 2009

शिव के पौराणिक शिवालय




यूँ तो प्रत्येक शहर और गाँवों में शिव के अनेकों शिवालय है, जिनमें से अधिकतर का अपना अलग पुरातात्विक और पौराणिक महत्व भी है। पुराणों में बारह ज्योर्तिलिंग के अलावा भी शिव के पवित्र स्थानों का उल्लेख मिलता है। प्रत्येक स्थान से जुड़ी अनेक कथाएँ हैं तथा इसका खगोलीय महत्व भी है। हम जानते हैं कि प्रमुख रूप से भगवान शिव के कौन-कौन से स्थान है।

कैलाश पर्वत : कैलाश पर्वत भगवान शिव का मुख्‍य निवास स्थान है। कैलाश पर्वत चीन के तिब्बती इलाके में है। पर्वत के नजदीक ही विश्व प्रसिद्ध मानसरोवर झील है जहाँ माँ पार्वती स्नान करती थी। पुराणों अनुसार उक्त स्थान के नीचे ही पाताल लोक है जहाँ भगवान विष्णु विराजमान है। कैलाश पर्वत के लाखों योजन ऊपर ब्रह्मा का स्थान माना गया है।

ज्योतिर्लिंग : ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में अनेकों मान्यताएँ प्रचलित है। विक्रम संवत के कुछ सहस्राब्‍दी पूर्व उल्कापात का अधिक प्रकोप हुआ। आदि मानव को यह रुद्र का आविर्भाव दिखा। शिव पुराण के अनुसार उस समय आकाश से ज्‍योति पिंड पृथ्‍वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। यही उल्‍का पिंड बारह ज्‍योतिर्लिंग कहलाए।

   


12 ज्योतिर्लिंग :- (1) सोमनाथ, (2) मल्लिकार्जुन, (3) महाकालेश्वर, (4) ॐकारेश्वर, (5) वैद्यनाथ, (6)

भीमशंकर, (7) रामेश्वर, (8) नागेश्वर, (9) विश्वनाथजी, (10) त्र्यम्बकेश्वर, (11) केदारनाथ, (12) घृष्णेश्वर।

अमरनाथ : वैसे जो जम्मू और कश्मीर में सैकड़ों प्राचीन शिव मंदिर है और हिन्दू पंडितों द्वारा पलायन करने के बाद सैंकड़ों मंदिर तोड़ दिए गया है किंतु विश्व प्रसिद्ध अमरनाथ तीर्थ स्‍थल का ही ज्यादा महत्व है। यह वह स्थान है जहाँ भगवान शिव ने माँ पार्वती को अमरत्व का रहस्य बताया था। इस स्थान को अमरनाथ की गुफा कहा जाता है। स्थानीय लोग इसे 'बर्फानी बाबा' की गुफा के नाम से पुकारते हैं। गुफा श्रीनगर से उत्तर-पूर्व में 135 सहस्त्रमीटर दूर समुद्रतल से 13,600 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। इस गुफा की लंबाई 19 मीटर, चौड़ाई 16 मीटर और ऊँचाई 11 मीटर है।

अरुणाचलेश्वर मंदिर : यह बहुत ही प्राचीन मंदिर है जो एक विशालकाय पर्वत पर स्थापित है। तिरुअन्नामलाई नामक कस्बे में स्थित यह मंदिर चेन्नई से 187 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर से जुड़ी कथा का शिव पुराण में उल्लेख मिलता है। भगवान शिव के पंचभूत क्षेत्रों में से एक अरुणाचलेश्वर मंदिर को अग्नि क्षेत्र माना जाता है जबकि काँची और तिरुवरुवर को पृथ्वी, चिदंबरम को आकाश, कलष्टी को वायु और तिरुवनिका को जल क्षेत्र माना जाता है।

श्रीकालहस्ती : आंध्रप्रदेश के तिरुपति शहर के पास पेन्नारजी की शाखा स्वर्णामुखी नदी के तट पर बसा कालहस्ती नामक स्थान पर भगवान शंकर का बहुत ही प्राचीन मंदिर स्थित है, जिसका उल्लेख पुराणों में मिलता है। दक्षिण भारत में स्थित भगवान शिव के तीर्थस्थानों में इस स्थान का विशेष महत्व है। नदी तट से पर्वत के तल तक विस्तारित इस स्थान को दक्षिण कैलाश व दक्षिण काशी नाम से भी जाना जाता है।

सिद्धनाथ महादेव : पाँडवों ने मालवा क्षेत्र में पाँच शिव मंदिर बनाएँ थे उनमें से एक है सिद्धनाथ महादेव का मंदिर। यह मंदिर पुण्य सलिला नर्मदा के किनारे बसे नगर नेमावर में स्थित है। ऐसी किंवदंती भी है कि सिद्धनाथ मंदिर के शिवलिंग की स्थापना चार सिद्ध ऋषि सनक, सनन्दन, सनातन और सनतकुमार ने सतयुग में की थी। इसी कारण इस मंदिर का नाम सिद्धनाथ है। हिंदू और जैन पुराणों में इस स्थान का कई बार उल्लेख हुआ है। इसे सब पापों का नाश कर सिद्धिदाता ‍तीर्थस्थल माना गया है।

कर्णेश्वर महादेव : मालवांचल में कौरवों-पांडवों ने अनेक मंदिर बनाएँ थे जिनमें से एक है सेंधल नदी के किनारे बसा यह कर्णेश्वर महादेव का मंदिर। करनावद (कर्णावत) नगर के राजा कर्ण यहाँ बैठकर ग्रामवासियों को दान दिया करते थे इस कारण इस मंदिर का नाम कर्णेश्वर मंदिर पड़ा। मध्यप्रदेश के इंदौर से 30 किलोमिटर पर स्थित देवास जिले में स्थित है करनावद ग्राम।

नटराज मंदिर चिदंबरम : तमिलनाडु में चिदंबरम का नटराज मंदिर चेन्नई-तंजावुर मार्ग पर चेन्नई से 245 किमी दूर स्थित है। पुराणों के मुताबिक भगवान यहाँ प्रणव मंत्र 'ॐ' के आकार में विराजमान हैं। भगवान शिव के पाँच क्षेत्रों में से एक है चिदंबरम। इसे शिव का आकाश क्षेत्र कहा जाता है। अन्य चार क्षेत्रों में कालाहस्ती (आंध्रप्रदेश) अर्थात वायु, कांचीपुरम यानी पृथ्वी, तिरुवनिका- जल और अरुणाचलेश्वर (तिरुवनामलाई) अर्थात अग्नि शामिल हैं। शिव के नटराज स्वरूप के नृत्य का स्वामी होने के कारण भरतनाट्यम के कलाकारों के लिए इस स्थान का खास महत्व है।

Monday, September 21, 2009

बेल पत्र का चढावा

मान्यता है कि शिव को बिल्व-पत्र चढ़ाने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। दरअसल बिल्व-पत्र एक पेड़ की पत्तियां हैं, जो आमतौर पर तीन-तीन के समूह में मिलती हैं। कुछ पत्तियां पांच के समूह की भी होती हैं लेकिन ये बड़ी दुर्लभ होती हैं। बिल्व को बेल भी कहते हैं। वास्तव में ये बिल्व की पत्तियां एक औषधि है। इसके औषधीय प्रयोग से हमारे कई रोग दूर हो जाते हैं। बिल्व के पेड़ का भी विशिष्ट धार्मिक महत्व है। कहते हैं कि इस पेड़ को सींचने से सब तीर्थो का फल और शिवलोक की प्राप्ति होती है।
महादेव का रूप है वृक्ष
बिल्व वृक्ष का धार्मिक महत्व है। कारण यह महादेव का ही रूप है। धार्मिक परंपरा में ऐसी मान्यता है कि बिल्व के वृक्ष के मूल अर्थात जड़ में लिंगरूपी महादेव का वास रहता है। इसीलिए बिल्व के मूल में महादेव का पूजन किया जाता है। इसकी मूल यानी जड़ को सींचा जाता है। इसका धार्मिक महत्व है। धर्मग्रंथों में भी इसका उल्लेख है-
बिल्वमूले महादेवं लिंगरूपिणमव्ययम्। य: पूजयति पुण्यात्मा स शिवं प्रापAुयाद्॥ बिल्वमूले जलैर्यस्तु मूर्धानमभिषिञ्चति। स सर्वतीर्थस्नात: स्यात्स एव भुवि पावन:॥ शिवपुराण १३/१४
अर्थ- बिल्व के मूल में लिंगरूपी अविनाशी महादेव का पूजन जो पुण्यात्मा व्यक्ति करता है, उसका कल्याण होता है। जो व्यक्ति शिवजी के ऊपर बिल्वमूल में जल चढ़ाता है उसे सब तीर्थो में स्नान का फल मिल जाता है।
बिल्व-पत्र तोड़ने का मंत्र
बिल्व-पत्र को सोच-विचार कर ही तोड़ना चाहिए। पत्ते तोड़ने से पहले यह मंत्र बोलना चाहिए-
अमृतोद्भव श्रीवृक्ष महादेवप्रिय: सदा। गृöामि तव पत्राणि शिवपूजार्थमादरात्॥ -आचारेन्दु अर्थ- अमृत से उत्पन्न सौंदर्य व ऐश्वर्यपूर्ण वृक्ष महादेव को हमेशा प्रिय है। भगवान शिव की पूजा के लिए हे वृक्ष में तुम्हारे पत्र तोड़ता हूं।
पत्तियां कब न तोड़ें
विशेष दिन या पर्वो के अवसर पर बिल्व के पेड़ से पत्तियां तोड़ना मना है। शास्त्रों के अनुसार इसकी पत्तियां इन दिनों में नहीं तोड़ना चाहिए-
>> सोमवार के दिन >> चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या की तिथियों को। >> संक्रांति के पर्व पर।
अमारिक्तासु संक्रान्त्यामष्टम्यामिन्दुवासरे । बिल्वपत्रं न च छिन्द्याच्छिन्द्याच्चेन्नरकं व्रजेत ॥ लिंगपुराण
अर्थ
अमावस्या, संक्रान्ति के समय, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी तिथियों तथा सोमवार के दिन बिल्व-पत्र तोड़ना वर्जित है।
चढ़ाया गया पत्र भी चढ़ा सकते हैं
शास्त्रों में विशेष दिनों पर बिल्व-पत्र चढ़ाने से मना किया गया है तो यह भी कहा गया है कि इन दिनों में चढ़ाया गया बिल्व-पत्र धोकर पुन: चढ़ा सकते हैं।
अर्पितान्यपि बिल्वानि प्रक्षाल्यापि पुन: पुन:। शंकरायार्पणीयानि न नवानि यदि चित्॥ स्कन्दपुराण, आचारेन्दु,
अर्थ- अगर भगवान शिव को अर्पित करने के लिए नूतन बिल्व-पत्र न हो तो चढ़ाए गए पत्तों को बार-बार धोकर चढ़ा सकते हैं।
विभिन्न रोगों की कारगर दवा
बिल्व का वृक्ष विभिन्न रोगों की कारगर दवा है। इसके पत्ते ही नहीं बल्कि विभिन्न अंग दवा के रूप में उपयोग किए जाते हैं। पीलिया, सूजन, कब्ज, अतिसार, शारीरिक दाह, हृदय की घबराहट, निद्रा, मानसिक तनाव, श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर, आंखों के दर्द, रक्तविकार आदि रोगों में बिल्व के विभिन्न अंग उपयोगी होते हैं। इसके पत्तो को पानी से पकाकर उस पानी से किसी भी तरह के जख्म को धोकर उस पर ताजे पत्ते पीसकर बांध देने से वह शीघ्र ठीक हो जाता है।
पूजन में महत्व
वस्तुत: बिल्व पत्र हमारे लिए उपयोगी वनस्पति है। यह हमारे कष्टों को दूर करती है। भगवान शिव को चढ़ाने का भाव यह होता है कि जीवन में हम भी लोगों के संकट में काम आएं। दूसरों के दु:ख के समय काम आने वाला व्यक्ति या वस्तु भगवान शिव को प्रिय है। सारी वनस्पतियां भगवान की कृपा से ही हमें मिली हैं अत: हमारे अंदर पेड़ों के प्रति सद्भावना होती है। यह भावना पेड़-पौधों की रक्षा व सुरक्षा के लिए स्वत: प्रेरित करती है।
पूजा में चढ़ाने का मंत्र
भगवान शिव की पूजा में बिल्व पत्र यह मंत्र बोलकर चढ़ाया जाता है। यह मंत्र बहुत पौराणिक है।
त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम्। त्रिजन्मपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम्॥
अर्थ- तीन गुण, तीन नेत्र, त्रिशूल धारण करने वाले और तीन जन्मों के पाप को संहार करने वाले हे शिवजी आपको त्रिदल बिल्व पत्र अर्पित करता हूं।

महाशिवरात्रि का त्योहार विशेष महत्व


भगवान शिव में आस्था रखने वाले श्रद्धालुओं के लिए महाशिवरात्रि का त्योहार विशेष महत्व रखता है। इस अवसर पर देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थित द्वादश ज्योतिर्लिगों के दर्शन और पूजन का विशेष महत्व है। श्रीशिव महापुराण, रामायण, महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में भी इन द्वादश ज्योतिर्लिगों की महिमा का उल्लेख है। देश के प्रमुख हिस्सों में स्थित द्वादश ज्योतिर्लिग इस प्रकार हैं:

उत्तराखंड के केदारनाथ

उत्तराखंड में स्थित केदारनाथ ज्योतिर्लिग की स्थापना का इतिहास संक्षेप में यह है कि हिमालय के केदार-श्रृंग पर विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और वहां ज्योतिर्लिग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया।

काशी के विश्वेश्वर

श्रीविश्वेश्वर ज्योतिर्लिग वाराणसी में विराजमान है। इस मंदिर की स्थापना अथवा पुन: स्थापना आदि शंकराचार्य ने स्वयं अपने कर कमलों से की थी। इस प्राचीन मंदिर को मुगल आक्रमणकारियों द्वारा काफी क्षति पहुंचाई गई थी। बाद में शिवभक्त महारानी अहिल्याबाई ने इस मंदिर के पास भगवान विश्वनाथ का एक सुंदर नया मंदिर बनवा दिया और पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने इस पर स्वर्ण कलश चढवा दिया।

नासिक में ˜यंबकेश्वर

गोदावरी नदी के उद्गम स्थान नासिक के समीप अवस्थित ˜यंबकेश्वर भगवान की भी बडी महिमा है। गौतम ऋषि तथा गोदावरी के प्रार्थनानुसार भगवान शिव ने इस स्थान में वास करने की कृपा की और ˜यंबकेश्वर नाम से विख्यात हुए।

चंद्र के इष्ट सोमनाथ

सोमनाथ काठियावाड के श्रीप्रभास क्षेत्र में विराजमान हैं। यहां के प्रमुख ज्योतिर्लिग सोमनाथ की कथा संक्षेप में यह है कि दक्ष प्रजापति ने अपनी सभी 27 कन्याओं का विवाह चंद्रदेव के साथ किया था। परंतु चंद्रमा का अनुराग उनमें से एकमात्र रोहिणी के प्रति था और अन्य कन्याओं की वह उपेक्षा करते थे। इससे क्षुब्ध होकर दक्ष ने चंद्रमा को शाप दिया-तुम्हारा क्षय हो जाए। फलत: चंद्रमा क्षयग्रस्त हो गए। फिर उन्होंने छ: माह तक निरंतर घोर तप किया। फलत: भगवान शिव प्रसन्न हुए और उन्होंने मृतप्राय चंद्रमा को अमरत्व प्रदान किया। इस प्रकार चंद्रदेव शापमुक्त हो गए और शिव जी भक्तों के उद्धार के लिए ज्योतिर्लिग रूप में सदा के लिए इस क्षेत्र में वास करने लगे।

शिव का एक और नाम घुश्मेश्वर

यह ज्योतिर्लिग महाराष्ट्र के मनमाड से 66 मील दूर दौलताबाद स्टेशन के पास है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में एक कथा प्रचलित है- दक्षिण में देवगिरि पर्वत के निकट सुधर्मा और सुदेहा नामकनि:संतान ब्राह्मण दंपती रहते थे। संतान प्राप्ति केलिए सुदेहा ने अपनी छोटी बहन घुश्मा से अपने पति का विवाह करवा दिया। घुश्मा प्रतिदिन नियमपूर्वक 101 पार्थिव शिवलिंग बनाकर उनका विधिवत पूजन करती थी। भगवान शंकर के आशीर्वाद से उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। परंतु समय बीतने के साथ-साथ सुदेहा के अंदर ईष्र्या का भाव उत्पन्न हुआ। एक रोज रात्रि के समय जब वह बालक नदी के किनारे सैर कर रहा था तो सुधर्मा ने उसकी हत्या कर डाली और उसके शव को ले जाकर उसी सरोवर में छोड दिया, जिसमें घुश्मा पार्थिव शिवलिंग विसर्जित करती थी। प्रतिदिन की तरह घुश्मा शिवजी की पूजा करके शिवलिंग को विसर्जित करने सरोवर चली गई। वहां उसने देखा कि सरोवर से पुत्र जीवित बाहर निकल आया। धर्मपरायण घुश्मा की प्रार्थना से प्रसन्न होकर शिवजी वहीं ज्योतिर्लिग के रूप में वास करने लगे और घुश्मेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए।

दक्षिण के मल्लिकार्जुन

तमिलनाडु के कृष्णा जिले में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल पर्वत है। इसे दक्षिण कैलास कहते हैं। इस स्थान के संबंध में पौराणिक कथा है कि जब विश्व परिक्रमा की प्रतियोगिता में श्रीगणेश को शिव जी ने विजयी घोषित किया तो इस बात से रुष्ट होकर कार्तिकेय क्रौंच पर्वत पर चले गए। माता-पिता ने नारद को भेजकर उन्हें वापस बुलाया, पर वे न आए। अंत में, माता का हृदय व्याकुल हो उठा और पार्वती शिवजी को लेकर क्रौंच पर्वत पर पहुंचीं, किंतु उनके आने की खबर पाते ही वहां से भी कार्तिकेय भाग खडे हुए और काफी दूर जाकर रुके। कहते हैं, क्रौंच पर्वत पर पहुंच कर शंकर जी ज्योतिर्लिग के रूप में प्रकट हुए और तब से वह स्थान श्रीमल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिग के नाम से प्रख्यात है।

उज्जैन में महाकालेश्वर

श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिग मालवा प्रदेशांतर्गत शिप्रा नदी के तट पर उज्जैन नगरी में है। इसकी स्थापना के संबंध में कथा प्रचलित है कि एक दिन श्रीकर नामक एक बालक रास्ते से गुजर रहा था। शिप्रा नदी के तट पर नगर के राजा को शिवपूजन करते देखा। घर लौटते समय उसने रास्ते से एक पत्थर का टुकडा उठा लिया और घर आकर उसी को शिव रूप में स्थापित कर श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा करने लगा। माता भोजन के लिए बुलाती रही, पर बालक की समाधि नहीं टूटी। अंत में, झल्लाकर उसने पत्थर का टुकडा वहां से उठाकर दूर फेंक दिया। तब सरल चित्त भक्त बालक ने विलाप करते हुए शंभु को पुकारना शुरू किया और रोते हुए वह अचेत हो गया। अंततोगत्वा भोलानाथ प्रसन्न हुए और ज्यों ही होश में आकर उसने आंखें खोलीं तो उसने देखा कि सामने एक अति विशाल स्वर्ण कपाटयुक्त रत्नजटित मंदिर खडा है और उसके अंदर एक अति प्रकाशयुक्त ज्योतिर्लिग देदीप्यमान हो रहा है।

पर्वतों से घिरे ओंकारेश्वर

यह स्थान मध्य प्रदेश स्थित मालवा में नर्मदा नदी के तट पर है। यहीं मांधाता पर्वत पर ओंकारेश्वर तीर्थ है। प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा मांधाता बहुत बडे तपस्वी थे। उनके पुत्र अंबरीश और मुचकुंद भी प्रसिद्ध भक्त थे। राजा मांधाता ने इस स्थान पर घोर तपस्या करके शंकरजी को प्रसन्न किया था। यहां शिवलिंग के चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है। कुछ लोग इस पर्वत को ओंकार रूप मानते हैं और परिक्रमा करते हैं। शिवपुराण में श्रीओंकारेश्वर के दर्शन तथा नर्मदा स्नान का बडा माहात्म्य वर्णित है।

झारखंड में वैद्यनाथ धाम

झारखंड स्थित वैद्यनाथ धाम भी ज्योतिर्लिग है। इसकी स्थापना की कथा यह है कि एक बार शिवजी को प्रसन्न करने के लिए रावण अपने सिर काटकर उन्हें अर्पित कर रहा था।नौ सिर चढाने के बाद वह दसवां सिर भी काटने को ही था कि शिव जी प्रकट हो गए। उन्होंने उसके दसों सिर वापस ज्यों-के-त्यों कर दिए और फिर वरदान मांगने को कहा तो रावण ने लंका जाकर उस शिवलिंग को वहां स्थापित करने की आज्ञा मांगी। शिवजी ने अनुमति तो दे दी, पर इस चेतावनी के साथ कि यदि मार्ग में वह इसे पृथ्वी पर रख देगा तो वह वहीं अचल हो जाएगा।

रावण शिवलिंग लेकर चला, पर मार्ग में उसे लघुशंका निवृत्ति की आवश्यकता हुई और वह उस शिवलिंग को एक राहगीर को थमाकर चला गया। जब रावण के लौटने में देर हुई तो उसने शिवलिंग को भूमि पर रख दिया। लौटने पर रावण पूरी शक्ति लगाकर भी उसे उठा न सका और वहां शिवजी ज्योतिर्लिग के रूप में स्थापित हो गए।

गुजरात मेंनागेश्वर

नागेश्वर का मंदिर गुजरात स्थित द्वारिकापुरी के पास स्थित है। इस संबंध में प्रचलित कथा है कि वहां सुप्रिय नामक वैश्य था, जो शिवजी का अनन्य भक्त था। एक बार वह नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था, अचानक दारुक नाम के एक राक्षस ने उस नौका पर आक्रमण किया और उसमें बैठे सभी यात्रियों को अपने नगर में ले जाकर कारागार में बंद कर दिया। उसने अपने अनुचरों को राजा सुप्रिय की हत्या करने का आदेश दिया, परंतु वह इससे भी विचलित नहीं हुआ और शिवजी का ही नाम जपता रहता। फलत: कारागार में ही शिव जी ने उसे ज्योतिर्लिग रूप में दर्शन दिए।

महाराष्ट्र में भीमशंकर

भीमशंकर ज्योतिर्लिग मुंबई से पूर्व की ओर भीमा नदी के तट पर स्थित है। इस शिवलिंग की उत्पत्ति की कथा संक्षेप में इस प्रकार है। कामरूप देश में कामरूपेश्वर नामक एक महाप्रतापी शिवभक्त राजा थे। वहां भीम नामक एक महाराक्षस रहता था, जो भगवान शिव के ध्यान में मग्न राजा के ऊपर तलवार से वार किया। पर तलवार पार्थिव शिवलिंग पर पडी और उसी क्षण शिव जी ने प्रकट होकर राक्षस का प्राणांत कर दिया और ज्योतिर्लिग के रूप में वहीं निवास करने लगे।

जहां राम ने पूजा शिव को

लंका पर चढाई के लिए जाते हुए भगवान रामचंद्र जब रामेश्वरम पहुंचे तो उन्होंने समुद्र तट पर बालुका से शिवलिंग बनाकर पूजन किया था। उसी के बाद से भगवान शिव वहां ज्योतिर्लिग केरूप में प्रकट हुए और स्थायी रूप से वहीं निवास करने लगे।
अनादि, अनंत, देवाधिदेव, महादेव शिव परंब्रह्म हैं| सहस्र नामों से जाने जाने वाले त्र्यम्बकम् शिव साकार, निराकार, ॐकार और लिंगाकार रूप में देवताओं, दानवों तथा मानवों द्वारा पुजित हैं| महादेव रहस्यों के भंडार हैं| बड़े-बड़े ॠषि-महर्षि, ज्ञानी, साधक, भक्त और यहाँ तक कि भगवान भी उनके संम्पूर्ण रहस्य नहीं जान पाए|.सदाशिव भक्त.com उन्ही परंपिता जगतगुरू महादेव शिव के चरित्रचित्रण की एक तुच्छ किंतु भक्तिपूर्ण प्रयास है …


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