मान्यता है कि शिव को बिल्व-पत्र चढ़ाने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। दरअसल बिल्व-पत्र एक पेड़ की पत्तियां हैं, जो आमतौर पर तीन-तीन के समूह में मिलती हैं। कुछ पत्तियां पांच के समूह की भी होती हैं लेकिन ये बड़ी दुर्लभ होती हैं। बिल्व को बेल भी कहते हैं। वास्तव में ये बिल्व की पत्तियां एक औषधि है। इसके औषधीय प्रयोग से हमारे कई रोग दूर हो जाते हैं। बिल्व के पेड़ का भी विशिष्ट धार्मिक महत्व है। कहते हैं कि इस पेड़ को सींचने से सब तीर्थो का फल और शिवलोक की प्राप्ति होती है।
महादेव का रूप है वृक्ष
बिल्व वृक्ष का धार्मिक महत्व है। कारण यह महादेव का ही रूप है। धार्मिक परंपरा में ऐसी मान्यता है कि बिल्व के वृक्ष के मूल अर्थात जड़ में लिंगरूपी महादेव का वास रहता है। इसीलिए बिल्व के मूल में महादेव का पूजन किया जाता है। इसकी मूल यानी जड़ को सींचा जाता है। इसका धार्मिक महत्व है। धर्मग्रंथों में भी इसका उल्लेख है-
बिल्वमूले महादेवं लिंगरूपिणमव्ययम्। य: पूजयति पुण्यात्मा स शिवं प्रापAुयाद्॥ बिल्वमूले जलैर्यस्तु मूर्धानमभिषिञ्चति। स सर्वतीर्थस्नात: स्यात्स एव भुवि पावन:॥ शिवपुराण १३/१४
अर्थ- बिल्व के मूल में लिंगरूपी अविनाशी महादेव का पूजन जो पुण्यात्मा व्यक्ति करता है, उसका कल्याण होता है। जो व्यक्ति शिवजी के ऊपर बिल्वमूल में जल चढ़ाता है उसे सब तीर्थो में स्नान का फल मिल जाता है।
बिल्व-पत्र तोड़ने का मंत्र
बिल्व-पत्र को सोच-विचार कर ही तोड़ना चाहिए। पत्ते तोड़ने से पहले यह मंत्र बोलना चाहिए-
अमृतोद्भव श्रीवृक्ष महादेवप्रिय: सदा। गृöामि तव पत्राणि शिवपूजार्थमादरात्॥ -आचारेन्दु अर्थ- अमृत से उत्पन्न सौंदर्य व ऐश्वर्यपूर्ण वृक्ष महादेव को हमेशा प्रिय है। भगवान शिव की पूजा के लिए हे वृक्ष में तुम्हारे पत्र तोड़ता हूं।
पत्तियां कब न तोड़ें
विशेष दिन या पर्वो के अवसर पर बिल्व के पेड़ से पत्तियां तोड़ना मना है। शास्त्रों के अनुसार इसकी पत्तियां इन दिनों में नहीं तोड़ना चाहिए-
>> सोमवार के दिन >> चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या की तिथियों को। >> संक्रांति के पर्व पर।
अमारिक्तासु संक्रान्त्यामष्टम्यामिन्दुवासरे । बिल्वपत्रं न च छिन्द्याच्छिन्द्याच्चेन्नरकं व्रजेत ॥ लिंगपुराण
अर्थ
अमावस्या, संक्रान्ति के समय, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी तिथियों तथा सोमवार के दिन बिल्व-पत्र तोड़ना वर्जित है।
चढ़ाया गया पत्र भी चढ़ा सकते हैं
शास्त्रों में विशेष दिनों पर बिल्व-पत्र चढ़ाने से मना किया गया है तो यह भी कहा गया है कि इन दिनों में चढ़ाया गया बिल्व-पत्र धोकर पुन: चढ़ा सकते हैं।
अर्पितान्यपि बिल्वानि प्रक्षाल्यापि पुन: पुन:। शंकरायार्पणीयानि न नवानि यदि चित्॥ स्कन्दपुराण, आचारेन्दु,
अर्थ- अगर भगवान शिव को अर्पित करने के लिए नूतन बिल्व-पत्र न हो तो चढ़ाए गए पत्तों को बार-बार धोकर चढ़ा सकते हैं।
विभिन्न रोगों की कारगर दवा
बिल्व का वृक्ष विभिन्न रोगों की कारगर दवा है। इसके पत्ते ही नहीं बल्कि विभिन्न अंग दवा के रूप में उपयोग किए जाते हैं। पीलिया, सूजन, कब्ज, अतिसार, शारीरिक दाह, हृदय की घबराहट, निद्रा, मानसिक तनाव, श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर, आंखों के दर्द, रक्तविकार आदि रोगों में बिल्व के विभिन्न अंग उपयोगी होते हैं। इसके पत्तो को पानी से पकाकर उस पानी से किसी भी तरह के जख्म को धोकर उस पर ताजे पत्ते पीसकर बांध देने से वह शीघ्र ठीक हो जाता है।
पूजन में महत्व
वस्तुत: बिल्व पत्र हमारे लिए उपयोगी वनस्पति है। यह हमारे कष्टों को दूर करती है। भगवान शिव को चढ़ाने का भाव यह होता है कि जीवन में हम भी लोगों के संकट में काम आएं। दूसरों के दु:ख के समय काम आने वाला व्यक्ति या वस्तु भगवान शिव को प्रिय है। सारी वनस्पतियां भगवान की कृपा से ही हमें मिली हैं अत: हमारे अंदर पेड़ों के प्रति सद्भावना होती है। यह भावना पेड़-पौधों की रक्षा व सुरक्षा के लिए स्वत: प्रेरित करती है।
पूजा में चढ़ाने का मंत्र
भगवान शिव की पूजा में बिल्व पत्र यह मंत्र बोलकर चढ़ाया जाता है। यह मंत्र बहुत पौराणिक है।
त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम्। त्रिजन्मपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम्॥
अर्थ- तीन गुण, तीन नेत्र, त्रिशूल धारण करने वाले और तीन जन्मों के पाप को संहार करने वाले हे शिवजी आपको त्रिदल बिल्व पत्र अर्पित करता हूं।

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Monday, September 21, 2009
महाशिवरात्रि का त्योहार विशेष महत्व

भगवान शिव में आस्था रखने वाले श्रद्धालुओं के लिए महाशिवरात्रि का त्योहार विशेष महत्व रखता है। इस अवसर पर देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थित द्वादश ज्योतिर्लिगों के दर्शन और पूजन का विशेष महत्व है। श्रीशिव महापुराण, रामायण, महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में भी इन द्वादश ज्योतिर्लिगों की महिमा का उल्लेख है। देश के प्रमुख हिस्सों में स्थित द्वादश ज्योतिर्लिग इस प्रकार हैं:
उत्तराखंड के केदारनाथ
उत्तराखंड में स्थित केदारनाथ ज्योतिर्लिग की स्थापना का इतिहास संक्षेप में यह है कि हिमालय के केदार-श्रृंग पर विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और वहां ज्योतिर्लिग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया।
काशी के विश्वेश्वर
श्रीविश्वेश्वर ज्योतिर्लिग वाराणसी में विराजमान है। इस मंदिर की स्थापना अथवा पुन: स्थापना आदि शंकराचार्य ने स्वयं अपने कर कमलों से की थी। इस प्राचीन मंदिर को मुगल आक्रमणकारियों द्वारा काफी क्षति पहुंचाई गई थी। बाद में शिवभक्त महारानी अहिल्याबाई ने इस मंदिर के पास भगवान विश्वनाथ का एक सुंदर नया मंदिर बनवा दिया और पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने इस पर स्वर्ण कलश चढवा दिया।
नासिक में ˜यंबकेश्वर
गोदावरी नदी के उद्गम स्थान नासिक के समीप अवस्थित ˜यंबकेश्वर भगवान की भी बडी महिमा है। गौतम ऋषि तथा गोदावरी के प्रार्थनानुसार भगवान शिव ने इस स्थान में वास करने की कृपा की और ˜यंबकेश्वर नाम से विख्यात हुए।
चंद्र के इष्ट सोमनाथ
सोमनाथ काठियावाड के श्रीप्रभास क्षेत्र में विराजमान हैं। यहां के प्रमुख ज्योतिर्लिग सोमनाथ की कथा संक्षेप में यह है कि दक्ष प्रजापति ने अपनी सभी 27 कन्याओं का विवाह चंद्रदेव के साथ किया था। परंतु चंद्रमा का अनुराग उनमें से एकमात्र रोहिणी के प्रति था और अन्य कन्याओं की वह उपेक्षा करते थे। इससे क्षुब्ध होकर दक्ष ने चंद्रमा को शाप दिया-तुम्हारा क्षय हो जाए। फलत: चंद्रमा क्षयग्रस्त हो गए। फिर उन्होंने छ: माह तक निरंतर घोर तप किया। फलत: भगवान शिव प्रसन्न हुए और उन्होंने मृतप्राय चंद्रमा को अमरत्व प्रदान किया। इस प्रकार चंद्रदेव शापमुक्त हो गए और शिव जी भक्तों के उद्धार के लिए ज्योतिर्लिग रूप में सदा के लिए इस क्षेत्र में वास करने लगे।
शिव का एक और नाम घुश्मेश्वर
यह ज्योतिर्लिग महाराष्ट्र के मनमाड से 66 मील दूर दौलताबाद स्टेशन के पास है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में एक कथा प्रचलित है- दक्षिण में देवगिरि पर्वत के निकट सुधर्मा और सुदेहा नामकनि:संतान ब्राह्मण दंपती रहते थे। संतान प्राप्ति केलिए सुदेहा ने अपनी छोटी बहन घुश्मा से अपने पति का विवाह करवा दिया। घुश्मा प्रतिदिन नियमपूर्वक 101 पार्थिव शिवलिंग बनाकर उनका विधिवत पूजन करती थी। भगवान शंकर के आशीर्वाद से उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। परंतु समय बीतने के साथ-साथ सुदेहा के अंदर ईष्र्या का भाव उत्पन्न हुआ। एक रोज रात्रि के समय जब वह बालक नदी के किनारे सैर कर रहा था तो सुधर्मा ने उसकी हत्या कर डाली और उसके शव को ले जाकर उसी सरोवर में छोड दिया, जिसमें घुश्मा पार्थिव शिवलिंग विसर्जित करती थी। प्रतिदिन की तरह घुश्मा शिवजी की पूजा करके शिवलिंग को विसर्जित करने सरोवर चली गई। वहां उसने देखा कि सरोवर से पुत्र जीवित बाहर निकल आया। धर्मपरायण घुश्मा की प्रार्थना से प्रसन्न होकर शिवजी वहीं ज्योतिर्लिग के रूप में वास करने लगे और घुश्मेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए।
दक्षिण के मल्लिकार्जुन
तमिलनाडु के कृष्णा जिले में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल पर्वत है। इसे दक्षिण कैलास कहते हैं। इस स्थान के संबंध में पौराणिक कथा है कि जब विश्व परिक्रमा की प्रतियोगिता में श्रीगणेश को शिव जी ने विजयी घोषित किया तो इस बात से रुष्ट होकर कार्तिकेय क्रौंच पर्वत पर चले गए। माता-पिता ने नारद को भेजकर उन्हें वापस बुलाया, पर वे न आए। अंत में, माता का हृदय व्याकुल हो उठा और पार्वती शिवजी को लेकर क्रौंच पर्वत पर पहुंचीं, किंतु उनके आने की खबर पाते ही वहां से भी कार्तिकेय भाग खडे हुए और काफी दूर जाकर रुके। कहते हैं, क्रौंच पर्वत पर पहुंच कर शंकर जी ज्योतिर्लिग के रूप में प्रकट हुए और तब से वह स्थान श्रीमल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिग के नाम से प्रख्यात है।
उज्जैन में महाकालेश्वर
श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिग मालवा प्रदेशांतर्गत शिप्रा नदी के तट पर उज्जैन नगरी में है। इसकी स्थापना के संबंध में कथा प्रचलित है कि एक दिन श्रीकर नामक एक बालक रास्ते से गुजर रहा था। शिप्रा नदी के तट पर नगर के राजा को शिवपूजन करते देखा। घर लौटते समय उसने रास्ते से एक पत्थर का टुकडा उठा लिया और घर आकर उसी को शिव रूप में स्थापित कर श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा करने लगा। माता भोजन के लिए बुलाती रही, पर बालक की समाधि नहीं टूटी। अंत में, झल्लाकर उसने पत्थर का टुकडा वहां से उठाकर दूर फेंक दिया। तब सरल चित्त भक्त बालक ने विलाप करते हुए शंभु को पुकारना शुरू किया और रोते हुए वह अचेत हो गया। अंततोगत्वा भोलानाथ प्रसन्न हुए और ज्यों ही होश में आकर उसने आंखें खोलीं तो उसने देखा कि सामने एक अति विशाल स्वर्ण कपाटयुक्त रत्नजटित मंदिर खडा है और उसके अंदर एक अति प्रकाशयुक्त ज्योतिर्लिग देदीप्यमान हो रहा है।
पर्वतों से घिरे ओंकारेश्वर
यह स्थान मध्य प्रदेश स्थित मालवा में नर्मदा नदी के तट पर है। यहीं मांधाता पर्वत पर ओंकारेश्वर तीर्थ है। प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा मांधाता बहुत बडे तपस्वी थे। उनके पुत्र अंबरीश और मुचकुंद भी प्रसिद्ध भक्त थे। राजा मांधाता ने इस स्थान पर घोर तपस्या करके शंकरजी को प्रसन्न किया था। यहां शिवलिंग के चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है। कुछ लोग इस पर्वत को ओंकार रूप मानते हैं और परिक्रमा करते हैं। शिवपुराण में श्रीओंकारेश्वर के दर्शन तथा नर्मदा स्नान का बडा माहात्म्य वर्णित है।
झारखंड में वैद्यनाथ धाम
झारखंड स्थित वैद्यनाथ धाम भी ज्योतिर्लिग है। इसकी स्थापना की कथा यह है कि एक बार शिवजी को प्रसन्न करने के लिए रावण अपने सिर काटकर उन्हें अर्पित कर रहा था।नौ सिर चढाने के बाद वह दसवां सिर भी काटने को ही था कि शिव जी प्रकट हो गए। उन्होंने उसके दसों सिर वापस ज्यों-के-त्यों कर दिए और फिर वरदान मांगने को कहा तो रावण ने लंका जाकर उस शिवलिंग को वहां स्थापित करने की आज्ञा मांगी। शिवजी ने अनुमति तो दे दी, पर इस चेतावनी के साथ कि यदि मार्ग में वह इसे पृथ्वी पर रख देगा तो वह वहीं अचल हो जाएगा।
रावण शिवलिंग लेकर चला, पर मार्ग में उसे लघुशंका निवृत्ति की आवश्यकता हुई और वह उस शिवलिंग को एक राहगीर को थमाकर चला गया। जब रावण के लौटने में देर हुई तो उसने शिवलिंग को भूमि पर रख दिया। लौटने पर रावण पूरी शक्ति लगाकर भी उसे उठा न सका और वहां शिवजी ज्योतिर्लिग के रूप में स्थापित हो गए।
गुजरात मेंनागेश्वर
नागेश्वर का मंदिर गुजरात स्थित द्वारिकापुरी के पास स्थित है। इस संबंध में प्रचलित कथा है कि वहां सुप्रिय नामक वैश्य था, जो शिवजी का अनन्य भक्त था। एक बार वह नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था, अचानक दारुक नाम के एक राक्षस ने उस नौका पर आक्रमण किया और उसमें बैठे सभी यात्रियों को अपने नगर में ले जाकर कारागार में बंद कर दिया। उसने अपने अनुचरों को राजा सुप्रिय की हत्या करने का आदेश दिया, परंतु वह इससे भी विचलित नहीं हुआ और शिवजी का ही नाम जपता रहता। फलत: कारागार में ही शिव जी ने उसे ज्योतिर्लिग रूप में दर्शन दिए।
महाराष्ट्र में भीमशंकर
भीमशंकर ज्योतिर्लिग मुंबई से पूर्व की ओर भीमा नदी के तट पर स्थित है। इस शिवलिंग की उत्पत्ति की कथा संक्षेप में इस प्रकार है। कामरूप देश में कामरूपेश्वर नामक एक महाप्रतापी शिवभक्त राजा थे। वहां भीम नामक एक महाराक्षस रहता था, जो भगवान शिव के ध्यान में मग्न राजा के ऊपर तलवार से वार किया। पर तलवार पार्थिव शिवलिंग पर पडी और उसी क्षण शिव जी ने प्रकट होकर राक्षस का प्राणांत कर दिया और ज्योतिर्लिग के रूप में वहीं निवास करने लगे।
जहां राम ने पूजा शिव को
लंका पर चढाई के लिए जाते हुए भगवान रामचंद्र जब रामेश्वरम पहुंचे तो उन्होंने समुद्र तट पर बालुका से शिवलिंग बनाकर पूजन किया था। उसी के बाद से भगवान शिव वहां ज्योतिर्लिग केरूप में प्रकट हुए और स्थायी रूप से वहीं निवास करने लगे।
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अनादि, अनंत, देवाधिदेव, महादेव शिव परंब्रह्म हैं| सहस्र नामों से जाने जाने वाले त्र्यम्बकम् शिव साकार, निराकार, ॐकार और लिंगाकार रूप में देवताओं, दानवों तथा मानवों द्वारा पुजित हैं| महादेव रहस्यों के भंडार हैं| बड़े-बड़े ॠषि-महर्षि, ज्ञानी, साधक, भक्त और यहाँ तक कि भगवान भी उनके संम्पूर्ण रहस्य नहीं जान पाए|.सदाशिव भक्त.com उन्ही परंपिता जगतगुरू महादेव शिव के चरित्रचित्रण की एक तुच्छ किंतु भक्तिपूर्ण प्रयास है …